कब देखा है तुमने मुझको,
सुर चरणों पर इठलाते हुए
कब देखा है तुमने मुझको
अलकावलि में बंध जाते हुए
कब देखा है तुमने मुझपर
बेसुध मधुकर बौराते हुए
कब पाया है तुमने मुझको
दब पन्नों में मुरझाते हुए
स्मृति को कर जोरों झंकृत
मुख पर मुस्कान जगाते हुए
हो नहीं सका कभी ज्ञात दोष
बस कर्म किये मैं जाता
हूँ
मैं दूष्य सदा इस अवनि पर
बदनाम हुआ मैं जाता हूँ
मैं प्रहरी हूँ जिस रचना का
धोखा नहीं उसको दे सकता
पालित, पोषित जिस रचना से
संग उसके ही जीता मरता
मैं उनमे नहीं हूँ जो अपनी
जननी से सद सिंचन पाकर
कर मुग्ध किसी के नयनों को
जा सजते हैं पर-ग्रीवा पर
झड़ जाऊं हलके झोंके से
इतना तनु अस्तित्व
नहीं
परजीवी सा जो जीवन हो
उस जीवन का औचित्य नहीं
जो सूख भी जायें शाखें,पत्ते
मैं संग उसी मिट जाता हूँ
लेकिन देखो सदियों से ही
बदनाम हुआ मैं जाता हूँ
खलनायक सी उपमा मेरी
अर्णव हिय में चिर
व्यथा-भार
प्रतिशीत वहीँ पर सान्द्र
पीर
क्या तुम जानो वेदना अपार
नहीं अहर्नीय ये विषाद नहीं
तन तलिन है ये अवसाद नहीं
वनित वन्या ही रही हर काल
में
और मैं शत्रु-सम, ये अपवाद
नहीं
रक्त-पिपासा गुण नहीं
मेरा
चलाता नहीं किसी पर जोर
मैं निरंकुश बेधता उनके कर
तोड़ने बढ़ते जो फूलों की ओर
निध्यात व्यथा हुई ना अबतक
सो आज सबको बतलाता हूँ
जो अपना धर्म निभाता हूँ
बदनाम हुआ मैं जाता हूँ
(निहार रंजन, सेंट्रल, १४
अगस्त २०१३)
अर्णव हिय - व्याकुल ह्रदय
प्रतिशीत - पिघला हुआ
अहर्नीय - जो अर्चना करने लायक हो
तलिन - दुबला पतला
वनित -जिसे पाने की इच्छा होती है
निध्यात -जिसके बारे में फिक्र किया गया हो
अर्णव हिय - व्याकुल ह्रदय
प्रतिशीत - पिघला हुआ
अहर्नीय - जो अर्चना करने लायक हो
तलिन - दुबला पतला
वनित -जिसे पाने की इच्छा होती है
निध्यात -जिसके बारे में फिक्र किया गया हो