Wednesday, September 30, 2015

ले लिया मौसम ने करवट

पिछले कुछ दिनों से सतपुरा के जंगलों में घूम रहा हूँ.  प्रकृति के मध्य से सूर्य, चन्द्रमा और मौसम की मादकता पा रहा हूँ. कभी कभी उनकी तस्वीरें भी ले रहा हूँ. आज की कविता उन्हीं तस्वीरों की बानगी है.


ले लिया मौसम ने करवट
व्योम से बादल गए हट
कनक-नभ से विहग बोले
‘तल्प-प्रेमी'  उठो झटपट
ले लिया मौसम ने करवट

खिली कोंढ़ी, जगे माली
कुसुम-पूरित हुई डाली
गई पीछे रात काली
वेणी भरने चली आली
श्लेष-वांछित, तप्त-रदपट
ले लिया मौसम ने करवट

रहे कब तक धरती सोती
किसानों ने  खेत जोती
क्पोत-क्पोती कब से बैठे
फिर भी क्यों न बात होती
यही पृच्छा मन में उत्कट
ले लिया मौसम ने करवट

जग उठे हैं श्वान सारे
दग्ध, प्यासे, मिलन-प्यारे
आह! उनकी वेदना है
क्यों कोई फिर ताने मारे  
वो उठायें हूक निर्भट!
ले लिया मौसम ने करवट

नीर झहरे, गीत गाये
हरित तृण-तृण मुस्कुराएँ
हो सुहागिन सांझ बेला
भरे मन में लहर लाये
प्राणवन्तिनी! खोल दो लट
ले लिया मौसम ने करवट

तमनगर प्रक्षीण है अब
निष्तुषित कलु-भाव है सब
भर चुका है सकल अंबर
ज्वाला के ही विविध छब-ढब
ह्रदय-उर्मि छुए तट-तट
ले लिया मौसम ने करवट

हर तरफ ज्यों हास का, ज्यों लास क्षण
मधु मन में, मधु तन में, मधु कण-कण
वाह! कितने  ठसक से ये बहक निकली
हरने गावों-नगरों से ये सारे मन-व्रण
तृषावंतों! पियो गटगट आज शत-घट
ले लिया मौसम ने करवट

(निहार रंजन, ग्वालियर, २९ सितम्बर  २०१५)


और अब इस कविता के 'नायकों'  की तस्वीरें-





























Sunday, September 20, 2015

एक असमाप्त प्रेम-कथा

यह सत्य है कि हमने एक-एक कलियाँ गुलाब की लेकर
नहीं बाँधा था एक दूसरे को भुज-पाश में
नहीं गए मनाली, ऊटी या उटकमंड
नहीं धोये हमने क्षीर-धार से  शिलाखंड
नहीं गए अमृतसर, अजमेर या लोदी गार्डन
हुमायूं की कब्रगाह, पुराने किले या शाहजहानाबाद के पार
हमने नहीं कहा, तुम हो नाव, मैं हूँ पतवार
पर यह सत्य है, जाने किस मारीच के भय से
एक काली हिरणी बनकर
तुमने ही पाया था, पथ इस पंजर-कफस में

सहज है यह पृक्ति
क्योंकि, इस धरातल पर सहज नहीं, एक ‘शस्य-कथा’
प्रयति की सीमाएं नहीं, स्वार्थ के उपर
सवाल, वाग्जाल और उन्नत भाल लिए स्थापित हैं  
वही प्रतिमान, वही विक्षिप्त लिप्सा  
वही अदय, वही भग्न-मना, वही आखेटक
जिसके अधिक्रम 
यानि स्याह-द्युतियों के आवेशित आवेश
तुम्हें, अर्थात, काली हिरणी को छूते है
इसीलिए, और सिर्फ इसीलिए                            
कि सृष्टि की अद्भुत गाथाएं
वेदवती या नंदलाल की
सुखांत नहीं है

तो फिर क्यों इतने महाद्वीपों, महासागरों के पार
इस घने विपिन में,
मधुवात, रात, प्रभात के बाद
पुनः राग-भैरवी में यह अंतर्नाद
अर्थात, तोयकाम काली-हिरणी की आर्द्र-ध्वनि
किसलय, कुसुम, मरंद के मध्य अग्नि-स्फुलिंग
एक उत्पलाक्षी का परिक्लांत-मुखारविंद
एक प्रत्यक्ष वेणीसंहार
हर्ष और आह्लाद के बीच
सातत्य उसी अनुतर्ष का
जिसके लिए तुमने घाट-घाट के पानी पिए
अपने भाव-उद्रेक से आहत होकर
स्वर-ग्रंथियों को बाँधा
कि कोई कर्ण-कटु गीत महीन हवाओं के साथ
दूर नहीं जाए
कि तुम्हारी इसी व्यासक्ति पर सिद्ध मीमांसक
व्यक्त न करें वही, जो तुम्हे ग्राह्य नहीं
कहो पिंज-हृदयी!
तुमने कभी सुनी है अपने रग-रेशे की केन्द्रित झंकार?
तुमने कभी सोचा है?
‘शेली’ की नाव सागर में डूब गयी,
लेकिन उसकी कवितायें अथाह सागर सी क्यों हो गयी?

भान हो तुम्हे कि, अनुस्मृतियों के जीवन
जीवन की अनुस्मृतियों के बीच का यथार्थ
यही है, जीवन की दारुण-कथाएँ यही है
सुख भी यही है, व्यथाएं भी यही है
कि एक अरण्य होता है
काली हिरणी होती है
होते हैं बाघ, वायस, श्रृगाल
हिरणी चाहती है एक निर्गल-पथ
बाघ, वायस, श्रृगाल चाहते हैं नमकीन गोश्त
हिरणी जब अरण्य-रोदन करती है
तो बाघ, वायस, श्रृगाल उसे मधुर-गीत समझते हैं
वह बहुत दूंद मचाती है लेकिन
बहुत वर्षों के बाद समय की आंधियां आती है
अरण्य की समस्त चरता का अंत-काल आता है
पेड़ सूख जाते हैं
अरण्य में अग्नि का संचार होता है
उसका विस्तार होता है

फिर तुमने क्यों कहा
एक पथ के दो रास्ते होंगे अब?


(ओंकारनाथ मिश्र, पंचमढ़ी , २५ अगस्त २०१५)

Friday, September 11, 2015

निशागीत

मन उद्भ्रांत है, सब शांत है
रात का एकांत है

हरसिंगार का पेड़ है
कायर है चाँद
सुप्त है, लुप्त है
किसी कारण से गुप्त है
रात का एकांत है
घना तिमिर है
सब शांत है
कायर है चाँद
किसी और चाहना में,
वासना में असीर
अनिश्चित, अधीर
रात के एकांत में
गाता हूँ निशागीत

सोचता हूँ  अक्सर
मेरे सर पर है जो ऋण
कब हो सकूँगा उससे उऋण
मैं अपनी वासना का गुलाम
कब लौटा पाऊंगा अपने स्वेद का बूँद मात्र
अपनी माँ के लिए,
अपनी मिटटी के लिए
कब हो पाऊंगा मैं स्वामी अपनी वासना का
अपनी झोपड़ी के धुंधले प्रकाश में
रात के एकांत में

मैं अक्सर सोचता हूँ
रात के एकांत में
अपने बनाये चक्रव्यूह में मनुष्य
एक छद्म विभासा, एक कप्लना-कुवेल की आभा
मन में स्थापित किये
रात के एकांत में
चलता हुआ आ जाता कुम्भिपाकी-कीच में
रति-रंजित, उन्मादित
विस्मृत कर जीवन के वे क्षण
जो ऋण के, विश्वास के थे
और आ ठहरता है
अपने मन-मदन की तलाश में
पिया के पास में, पाश में
कहते हुए मैं कृतहस्त
मैं परिस्थिति विवश
मैं आधुनिक
मैं क्षन्तव्य
गढ़ता हूँ जीवन की नयी परिभाषाएं
और सारा ऋण पीकर
चाहता हूँ दंड न्यून
चाहता हूँ हो स्वयं पर
सदा आलोकित स्यून
रात के एकांत में

(ओंकारनाथ मिश्र, खजुराहो, ५ सितम्बर २०१५ )

Friday, September 4, 2015

ह्रदय-राग

 प्रातः नियमानुसार,
मंदिर की घंटी मस्जिद में छनती है
फिर सीधे मेरे कानों में आकर बजती है
और रातों को झींगुर बहुत देर तक कहते हैं
साहब! यहीं कहीं तानसेन अभी भी रहते हैं 
और एक लड़की को, बस देखते रहने का जूनून हैं
शायद इसी में उसे सुकून है ( क्यों हैं?)
यह शहर है या शहर-सा  है?
पर प्रश्न कुछ कोई और मन बसा है
कि सावन के झूले मज़बूत दरख्तों पर क्यों लगते हैं ?
उनकी आँखों में स्वर्ग-लोक के सपने क्यों बसते हैं?
साठ वर्षों तक भोग करके रोग से परिक्षत शरीर पर
वेश्याओं के बढ़े हाथों से घिन आती है (क्यों आती हैं?)
सोग होता है, फिर योग होता है
मूलबंद, जालंधर बंद, अग्निसार
सारे कुकर्मों का यही उपचार
ऊपर मन में मैल, नीचे शंखप्रक्षालन  
यहाँ शिव-शिव-शिव, वहां मिस रॉजर्स से लालन
मैं बस इतना पूछता हूँ कि रात के एकांत में
जब तन निढाल होता है
क्या अपनी आत्मा से सबका सवाल होता है?
कि झिलमिल रंगीनियों के इस खेल में
इन्द्रालय आकर क्यों जाती है इंद्राणी जेल में ?
रात भर श्वान भूकते हैं
हम क्या सुनने से चूकते हैं?

(निहार रंजन, ग्वालियर, २९ अगस्त २०१५)