महान निर्देशक गुरु दत्त के फिल्मों का मैं
बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ. उनकी मशहूर फिल्म 'प्यासा' कई बार देखी है. फिल्म के आखिरी दृश्य में वो
कोठे पर पहुँच वहीदा रहमान को बुलाते हैं और "साथ चलोगी?" प्रश्न के साथ फिल्म का समापन हो
जाता है. यह कविता उसी फिल्म प्यासा के आखिरी दृश्यों प्रेरित है और इस महान
कलाकार को समर्पित है.
प्रिये तुम चलोगी साथ
मेरे?
उबड़-खाबड़ कंकड़ पत्थर, यही मार्ग का परिचय है
ना पेड़ों की छाया ना
पनघट चलो अगर दृढ निश्चय है
हम नहीं ख्वाब दिखाने
वाले इन्द्रलोकी काशानों के
अपनी बगिया में नहीं
मिलती खुशबू जूही बागानों के
ना रोशन हैं राहें
अपनी, पल पल ही टकराना होगा
गिरते उठते गिरते उठते
इस पथ पर तुम्हे जाना होगा
भूखे प्यासे दिन
गुजरेंगे, भूखी
प्यासी रातें होंगी
तेज हवाएं भीषण गर्जन
साथ लिए बरसातें होंगी
जीवन ताप परीक्षा होगी, होगी असलियत की पहचान
निखर कर बाहर निकलोगी
गर हो तुम स्वर्ण समान
अपने हिस्से में कुछ
दागदार फूल है, कर दूं अर्पण?
पर अन्दर अथाह प्रेम
है, खोलो पट देखो मेरा मन
इस अनिश्चय के डगर में, चलोगी पकड़ तुम हाथ मेरे ?
आज कह दो तुम प्रिये
गर चल सकोगी साथ मेरे
निहार रंजन, सेंट्रल, २-२३-२०१३