Saturday, May 30, 2015

स्वप्न जुगुप्सा

आह! अगर सांत होती वह नांत कथा

झाँक रहा था सूक्ष्म विवरों से
स्वप्न लोक का पुनीत प्रकाश
यहाँ आस, वहां भास, किलकारियां, अट्टाहास
धत! वह स्वप्न लोक, यहाँ पीव, वहां मवाद
न गौतम, न अहिल्या, ना सावित्री, ना सत्यवान
पुंश्चली (ये भी कोई शब्द है?) ही पुंश्चली,
करें तो किसका आह्वान
किलकारियां, अट्टाहास और पुनीत प्रकाश
एक नरपिशाच, दो नरपिशाच, तीन नरपिशाच
(गंदे पनाले के पार)
नरपिशाच ही नरपिशाच, संभोग के आदि-आसन में
लेकिन गौतम कोई नहीं, कोई ‘पाषाण-उत्थान’ नहीं
वहां भी शशि,
कृष्णपक्ष से संत्रस्त
चपल, किये युग्मित हस्त
शशि थी वो, चाहती थी आभा
आई घूंघट के पट खोल
दिनेश ने कहा बिन पीटे ढोल
दिगम्बरी बोल!
बोल दिगम्बरी बोल!

और यियासा लिए प्यासा
कह उठा कि प्राणमणि!
उम्र भर प्यासा रहूँगा
लेकिन
रक्त के लिए, देह के लिए, अणु-आयुध के लिए
प्यास भी कोई प्यास है?
इसी तरह परिधि-परिक्रमा करते मिला ना कोई केंद्र
यूँ तश्नालब रहे जैसे मूमल-महेंद्र

आह! अगर सांत होती वह नांत कथा


(ओंकारनाथ मिश्र, बनगांव, ३० मई  २०१५ )

4 comments:

  1. वाकई प्‍यास अस्‍पृश्‍य हो तो महान बात होगी। समझने में कठिन है, पर अत्‍यंत उद्देश्‍यपूर्ण कविता।

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  2. नरपिशाच ही नरपिशाच, संभोग के आदि-आसन में
    लेकिन गौतम कोई नहीं, कोई ‘पाषाण-उत्थान’ नहीं
    वहां भी शशि,
    कृष्णपक्ष से संत्रस्त ...
    कहाँ रह गया है स्वप्न लोक ... जो सजग दीखता है वही तो स्वप्न लोक से झांकेगा ... पीड़ा, मवाद बार नर पिशाच ही तो रह गया है बस ... गहरी अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति ...

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  3. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  4. बेहद उम्दा और गहन अभिव्यक्ति। ...

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