पिछले पोस्ट के उस 'मैं' से इस 'मैं' का संवाद -
‘नई सड़क’ की तंग वो गलियाँ
जिनके थे जर्जर दीवार
रत्न, मोतियाँ ले आया था
जहाँ से मैंने अनगिन बार
जाओ तभी तुम्हे मिल पाये
वहां जो है संचित भण्डार
किसे ज्ञात पंकिल राहों में
हो तेरा कल्पित संसार
वही तंत्र है रहा पुकार
आ कर दो मुझको निर्विकार
मोटे चश्मे को दो उतार
देखो जिसका ये मांस, हाड़
वही जननी रही तुम्हे उचार
बदलो विचार! बदलो विचार!
क्या भाग समस्या से
हो पाता उनका हल?
कर व्यर्थ नहीं अपने
गठित बांहों का बल
संग्राम तुम्हारा है लड़
बिना किये यौवन निष्फल
रुकता क्यों है तू कायर सा
तेरी मिटटी, जा चला दे
हल
फिर देख वहां उनमे कैसे
लहलह कर हँसते हैं फसल
तेरे कर ही है युग-भाग्य
चल बढ़कर दे तू उसे बदल
फेहरिस्त बनाना छोड़ दे तू
ले शपथ रहे जो सदा अटल
सोचो जननी पर क्या गुज़रे
सुत उसका ले जब उसको छल
शिला को देख क्यों घबराता
है
उठा छेनी उसे तराश के देख
उभार दे उसपर ऐसी आकृति
समय थके नहीं लिखते उसपर लेख
अरे ओ मूढ़! क्या देख रहा है
उधर
इधर डाल दृष्टि बिना निकाले
मीन-मेख
लगा मत अपने पर मिथ्या का
दाग
जिसे कहा था होगा नहीं प्रतीच्य-लाग
वही माँ खड़ी है अब भी देहरी
पर
कि कब तुम आकर उसके अंक भर
जाओ
और बिना धाक-लाज के उसकी गोद पसर जाओ
अरे ओ जानेवाले! ना कर अनसुनी
जब संसार देगा तुम्हे
धिक्कार
तब अकेली वही माँ ही होगी
जो खुली रक्खेगी तेरे लिए
द्वार
बिना देखे कि तू कितना हरा
है
खोटा हो गया या अब भी खरा
है
चंगा है या व्याधियों से
घिरा है
सत्यकामी है या पातित्य से
भरा है
और मैं तुमसे ये कहता हूँ
बंधु मानकर
ताकि दे सको तुम संकीर्णता
को स्फार
आत्मघात से समय रहते तुम
जाओ चेत
तथा त्याग दो अपना ये अपसार
क्योंकि माधवी-लताओं से जो
मिलेगा व्रण
कठिन होगा बहुत उसका उपचार
इसीलिए शान्ति ला अपने चित्त
में
और चाँद तारों से पृथक देख
दृगवृत्त में
फिर चल मेरे साथ वापस अपनी
मिटटी में
जहाँ तू भाषण भी कर सके और
भजन भी
मुक्त हो कर नीरद-नाद सा
गर्जन भी
कल्पित-‘कुसुम’ के लोभ का
संवरण भी
चल, चल कि
बहुत हुई विलास की कहानियाँ
चल, चल कि
बहुत हुई तुम्हारी
नादानियां
चल, चल कि
तू स्वयं ही बन जा तक्षक
चल, चल कि
माँ का आँचल ही सबसे बड़ा
रक्षक
चल चल कि
वो नहीं मान सकती तुझे मृत
चल चल कि
इस युग का इतिहास हो
तुम्हारे कृत
इसीलिए बंधु! त्याग अपना
क्लीवत्व
फेंक अपना मोटा काला चश्मा
प्रशांत, अटलांटिक या लाल
सागर में
देख तेनजिंग और हिलेरी की
दिलेरी
अभी नहीं हुई कोई देरी
प्रण करो! रेत में फूल खिला
सकता हूँ
हाँ! बहुत कर सकता हूँ मैं
(निहार रंजन, सेंट्रल, २०
अक्टूबर २०१३)
मीन-मेख निकालना – बारीकी से अच्छा-बुरा ढूँढना
प्रेरित करते प्रेरक तान
ReplyDeleteविकल मन का हो संघान !! बहुत सुन्दर कविता ......!
क्या भाग समस्या से
ReplyDeleteहो पाता उनका हल?
प्रण करो! रेत में फूल खिला सकता हूँ
हाँ! बहुत कर सकता हूँ मैं
हार्दिक शुभकामनायें
ये हुई ना
*आँख ठहराना
नहीं तो
चिराग ठंडा होना
चिराग गुल होना
पिछली कविता को पढ़ते हुए जो कचोट रह गयी थी उस पर अमृत-लेप सी यह कविता है .. एक अमृत अनुभूति..
ReplyDeleteरेत में फुल खिला सकता हूँ
ReplyDeleteहाँ में बहुत कुछ कर सकता हूँ
प्रेरणा से भरी रचना .....
“अजेय-असीम{Unlimited Potential}”
ReplyDeleteसुंदर रचना |
सुंदर प्रस्तुति करन |
सुंदर संदेस ....
खुबसूरत अभिवयक्ति......
ReplyDeleteकल 27/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
ऊर्जा भरे संवाद मन को स्फूर्ति प्रदान कर रहे - मन कभी मनु,कभी श्रद्धा हो रहा
ReplyDeleteमैं से मैं का ओजपूर्ण संवाद ....बहुत सुंदर रचना .....!!
ReplyDeleteअनूठापन !!
ReplyDeleteसुन्दर शब्दप्रयोग ... आपकी यह उत्कृष्ट रचना कल रविवार दिनांक 27/10/2013 को ब्लॉग प्रसारण http://blogprasaran.blogspot.in/ पर लिंक की गयी है .. कृपया पधारें औरों को भी पढ़ें |
ReplyDeleteआपकी दोनों पोस्ट पढ़ने के बाद स्तब्ध हूँ ... कुछ शब्द नहीं मिल रहे हैं टिप्पणी को...
ReplyDeleteआपने तो अपने शब्दों से रेत में फूल खिला ही दिया ....उम्दा व ओजपूर्ण ....
शिला को देख क्यों घबराता है
ReplyDeleteउठा छेनी उसे तराश के देख
उभार दे उसपर ऐसी आकृति
उत्साह से भरी आह्वान -बहुत सुन्दर !
नई पोस्ट सपना और मैं (नायिका )
शिला को देख क्यों घबराता है
ReplyDeleteउठा छेनी उसे तराश के देख
उभार दे उसपर ऐसी आकृति
समय थके नहीं लिखते उसपर लेख
अरे ओ मूढ़! क्या देख रहा है उधर
इधर डाल दृष्टि बिना निकाले मीन-मेख..
बहुत ही गहन भाव.. उत्कृष्ट कविता
एक भावप्रवण रचना के लिए हार्दिक आभार बन्धु।
ReplyDeleteदोनों रचनाओं में गज़ब का तारतम्य ... ओज़स्वी, प्रेरित करता हुआ एक आह्वान ... देरी तो कभी भी नहीं हुई होती है ... बस दृष्टि जरूरी है ...
ReplyDeleteसब कुछ लुटा चुकी जननी का हाल बयान हो गया है। उस पर चर्चा विमर्श भी खत्म हो गए हैं। प्रगतिशीलता के मोटे चश्में सोने के हो गए हैं। बातों-विचारों में कक्ष और कुर्सी की सुविधा से निकला निचोड़ है। क्रांतिकारी, वास्तविकता, खेत-खलिहान या जंग के मैदान का व्यवहार प्रगतिशीलता की सोने की कलम से मु्द्रा से सजा कर लिखा जा रहा है और हरेक प्रगतिशील इसमें हस्त प्रक्षालन कर रहा है। बहुत ही धारदार व्यंग्य मारा है प्रगतिशीलवादियों पर। ..................जिस प्रकार आपकी पिछली पोस्ट पर मेरी ये टिप्पणी रही थी तो इस बार आपकी पोस्ट ने ऐसा कुछ कहने या टिप्पणी लिखने को बाध्य नहीं किया जो कचोटता हो। इस 'हां कर सकता हूँ मैं' के विचार-व्यवहार ने आपके पिछले 'हां यही कर सकता हूँ मैं' के नकारात्मक भाव को जीत लिया है। इस बार लिखने और पढ़ने वाले दोनों प्रेरित हैं सब ओर, उनमें ऊर्जा पोर-पोर।
ReplyDeleteप्रेरणा का स्रोत खोल रही है रचना ....पिछली रचना का सुंदर तोड़
ReplyDeleteबहुत अनूठा प्रयोग .....निशब्द करते शब्द
बहुत सुंदर और उम्दा अभिव्यक्ति...बधाई...
ReplyDeleteबेहतरीन और लाजवाब ।
ReplyDeleteवाह वाह वाह ! निहार भाई छा गए आप तो अधिक शब्द नहीं मिल पा रहे हैं तारीफ़ को बस हैट्स ऑफ बोलता हूँ |
निशब्द करती अद्भुत प्रस्तुति...एक एक शब्द प्रेरणा देता हुआ...
ReplyDeleteनि संदेह निशब्द करती रचना
ReplyDeleteवाकई प्रेरक लगी मुझे यह रचना !
ReplyDeleteहाँ में बहुत कुछ कर सकता हूँ
ReplyDeleteप्रेरणा से भरी रचना .....
http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/के शुक्रवारीय अंक १/११/१३ में इस रचना को शामिल किया गया हैं कृपया अवलोकन के लिय पधारे धन्यवाद
ReplyDeleteआकर्षणों से न हो तुम पदच्युत ! दृढ संकल्प !
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