उलझा अपने भावों में, कुछ
लिख नहीं पाऊँ
तुझसे प्राणित जो शब्द, उन्हें
क्या तुम्हे सुनाऊँ
उचित नहीं है क्षण ये, ना
मेरा राग मधुर
उर के विजोर तान से फिर क्या
बहलाऊं
आज नहीं मैं गा सकता हूँ
तुम ही गा दो मेरे गीत
चटु शब्द लिखना ये मेरी आदत
नहीं आरंभ से
कृपण कहा किसी ने, किसी ने
कहा हूँ दंभ से
पर ज्ञात उन्हें क्या, बात
जो अनुभूति की
रहता वो अव्यक्त ही, शब्दों
में परिरंभ से
मायावी परिरंभ से बचना
माया से होना भयभीत
नीरस सा हो, गर लिखूं उस
डोर की मैं बात फिर
सो चुप हूँ मैं, क्यों फिर
वही, गीत गाऊँ, शब्द फेनूं
चीन्हे पथिक, चिन्हार पथ के,
कुछ तो है, जो शांत है
पर शांत होने से कभी होती
नहीं अप-ध्वांत वेणु
मेरे मौन की नीरवता में
आओ तुम भी जाओ रीत
या इसे समझो, कर रहा मैं प्रेम
पुंजन
जिसमे चुभकी तुम लगाती थक
ना पाओ
और निकलकर उससे चाहे लाख
छुपा लो
सस्मित मुख के रागारुण से सब
कह जाओ
सच्चे बंधन हिलते नहीं समय
से
असंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत
(निहार रंजन, सेंट्रल, १३
अक्टूबर २०१३)
चुभकी- गोता
अप-ध्वांत वेणु- कर्कश बांसुरी
चुभकी- गोता
अप-ध्वांत वेणु- कर्कश बांसुरी
Hi Nihar
ReplyDeletelovely poem..I esp. loved these lines
सच्चे बंधन हिलते नहीं समय से
असंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत
:)
सच्चे बंधन हिलते नहीं समय से
ReplyDeleteअसंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत
हृदयस्पर्शी ....संग्रहणीय काव्य .....बहुत सुंदर लिखा है .......
परिरंभ = ??
ReplyDeleteपरिरंभ = आलिंगन
फेनूं = ??
फेनने से तात्पर्य था.
Deleteमेरे मौन की नीरवता में, आओ तुम भी जाओ रीत...
ReplyDeleteसच्चे बंधन हिलते नहीं समय से
ReplyDeleteअसंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत
बहुत सही कहा ....
मौन की नीरवता,,,,,,,तुम्हारे आने से चौपाल बन जाएगी रीत, आओ बेसुध आओ मुझको हर्षाओ......सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
खूबसूरत रचना ...
ReplyDeleteकल 17/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
सच्चे बंधन हिलते नहीं समय से
ReplyDeleteअसंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत
...बहुत खूब! सदैव की तरह एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति..
सच्चे बंधन हिलते नहीं समय से
ReplyDeleteअसंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत ..
उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ... समय के साथ बदलते बंधन सच्चे नहीं होते ... ओर संवाद कोई मायने नहीं रखता ...
सुन्दर भाव... बधाई...
ReplyDeleteपर ज्ञात उन्हें क्या, बात जो अनुभूति की
ReplyDeleteरहता वो अव्यक्त ही, शब्दों में परिरंभ से …. और जो अव्यक्त है,वही अनुभूतियों की उद्दत लहरें हैं
"आज नहीं मैं गा सकता हूँ
ReplyDeleteतुम ही गा दो मेरे गीत"
***
Soulful poetry!
बहुत सुन्दर!
वाह बहुत खुबसूरत |
ReplyDeleteसच्चे बंधन हिलते नहीं समय से
ReplyDeleteअसंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत
बहुत खूब...
प्रेय , गेय एवं अनुपमेय रचना.. अति सुन्दर..
ReplyDeleteमायावी परिरंभ से बचना
ReplyDeleteमाया से होना भयभीत.. बहुत ही उत्कृष्ट भाव . एक अनुरोध मैंने पहले भी किया है शायद .. आंचलिक भाषाओँ के अर्थ दे दिया करें तो बेहतर रहे.
.. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (21.10.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
बेहद खुबसूरत रचना ...
ReplyDeleteमेरे गीत तुम्हारे होठों पर !
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