ये दर-ओ-दीवार, ये फानूस
लटकती पेंटिंग पर
नीम-शब का माह
‘लिविंग रूम’ में सजी
आतिश-फिशां तस्वीरें
दफ्न किये गुज़रे वक़्त की
वो यादें जिसमे
नूर का एक दरिया था
आज नूर गायब है!
हवा की हलकी आहट से भी
ये दीवारें डोल रही है
ये पत्थर की दीवार है
या ताश के पत्तों की?
रंगीन माहौल में पहली
खुशनुमा सी वो मुलाक़ात
जिसकी खुशनुमाई थाम रखी थी
‘इलेक्ट्रिक लेमोनेड’ की
तरंगों ने
जहाँ ‘पूल टेबल’ पर
हर ‘शॉट’ के साथ
उसके झुकते ही झुक जाती थी
शातिर सय्याद चश्म
हुई थी इब्दिता-ए-मुहब्बत
उसी रोज़, उसी खोखली
रंगीन रौशनी के आब-ओ-ताब
में
बुनियाद रखी गयी थी
ताश के पत्तों के आशियाने की
चन्द लम्हात गुज़रे भी नहीं
एक ‘मुकम्मल’ आशियाँ खड़ा था
मखमली गद्दों के सोफे
साठ इंच की “वाल माउंटेड”
स्क्रीन
‘पार्टी पैक
एपीटाईज़र्स’ के साथ
झागदार ‘सैम एडम्स’ का
‘सूटकेस’
‘डेट्रॉइट टाइगर्स’ और ‘न्यूयॉर्क
यैंकीज’ का मैच
दोस्तों की जमघट, उनका
खुलूस
तखइल में वो नकूश हो
तो भी यादगार हो
एक मुक्कमल हयात की तस्वीर
यही जानी थी तुमने
ज़िन्दगी की तमाम ख्वाहिशें
इसी ‘मनी और हनी’ के रगबत
तक
सिमट के रह गयी थी
ताश के घरों की पुरनूर
ख्वाहिशें!
‘मनी और हनी’ के कॉकटेल की
तासीर ही तो थी आखिर
कि कल्ब से कब्ल बाँधी थी
तुमने
अपनी डोर उसकी इजारबंद से
नावाकिफ इस बात से
कि इजारबंद में असीर होकर
आशियाँ बसाने वालों के घर
तब्दील हो जाते हैं
ताश के पत्तों के घरों में
जिसके बनने और ढहने में
फासला होता है बस एक लम्हे
का
लेकिन ग़मख्वारी किस सबब?
तल्खियां पिन्हाँ कहाँ इस
कल्ब में
घर गिरेंगे, फिर घर उठेंगे
बवक्ते मय-परस्ती
फिर से सजेगी ‘पूल टेबल’
फिर से झुकेंगी सय्याद
निगाहें
फिर से उठेंगी वहीँ पर
‘इलेक्ट्रिक लेमोनेड’ की
तरंगे
बन जाएगा दुबारा
ताश के पत्तों का आशियाँ
‘वन्स’ मिलने वाली ‘लाइफ’
की
सॉलिटरी, सिंगल चॉइस
(निहार रंजन, सेंट्रल, ३०
अगस्त २०१३)