Sunday, September 23, 2012

ढूँढता हूँ मैं किनारा


ढूँढता हूँ मैं किनारा
है अथाह सरिता,
तेज  प्रवाह है
शूलों से भरी
अपनी  राह है
चाहता हूँ एक तिनके का सहारा
ढूँढता हूँ मैं किनारा

है दुनिया निर्मम
रक्त की प्यासी है
इसलिए दुनिया में
व्याप्त उदासी है
थक चुका हूँ देखकर यह नज़ारा
ढूँढता हूँ मैं किनारा

है कांटो  के नगर में  
फूलों का अरमान
तम-आसक्त है रजनी
कब  होगा विहान 
बारूद हूँ , मांगता हूँ एक शरारा
ढूँढता हूँ मैं किनारा

(निहार रंजन, सेंट्रल, ३०-७-२०१२)

Thursday, September 13, 2012

शाम से सुबह तक

हिंदी दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है करीब महीने भर पहले लिखी मेरी यह कविता-

शाम से सुबह तक

रक्तिम किरणें पश्चिम की 
हो गईं निस्तेज 
कह रही चिड़ियों से अब 
चलो सजाओ सेज 

होता दिन का अवसान देखकर 

चली चिरैया नीड़
इससे पहले कि अन्धकार
दे उसके पथ को चीर

नीड़ पहुँच कर उसने देखा
बदला क्षितिज का ढंग
और धरा पर नीचे
उछलते गाते कीट-पतंग

हो गया स्तब्ध जगत
रात हो गयी और अंधियारी
नभ के तारे पहरे देते
आयी निशाचर प्रहर की बारी

फिर फूटी पूरब से किरणें
रोशन हो गयी सारी दिशाएं
आओ निकलें नीड़ से
एक उड़ान फिर से भर आयें.



(निहार रंजन, सेंट्रल, ३-८-२०१२)