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Wednesday, May 29, 2013

नीली रौशनी के तले

किंग्स स्ट्रीट से हर रोज़
गुजरता हूँ घर लौटते  
उसे बेतहाशा पार करने की जिद ठाने
मगर ये रेड लाइट
रोक लेती है मुझे
नीली-पीली रौशनी से नहलाने के लिए
‘भद्रपुरुषों’ के क्लब में मुझे बुलाने के लिए
भद्र समाज में भद्रता का पाठ पढ़ाने के लिए
इसी दुनिया में ‘जन्नत’ की सैर कराने के लिए

ये कोई सोनागाछी नहीं
ये कोई जी बी रोड नहीं
ये चोर-गलियाँ नहीं
इसमें छुपकर जाने की ज़रुरत नहीं
सामजिक सरोकारों से जुड़े हैं ये
जनता की मुहर है इसे
और नीली रौशनी को बड़ी जिम्मेदारी है
आपको ‘भद्र’ बनाने की

इसलिए स्वेच्छा से खड़ी
मुस्कुराती ये तन्वंगियाँ
सिगरेट-हुक्कों के मशरूमी धुएं के बीच
सागर-ओ-सहबा के दौर के साथ
बिलकुल पाषाणी अंदाज़ में
आपसे एक होना चाहती है
क्योंकि समाज ने जिम्मेदारी है इसे
आपको ‘भद्र’ बनाने की

जितनी जोर से आपके सिक्के झनकते है
उतनी ही जोर से अदाओं की बारिश होती है  
मर्जी से तो क्या!
आखिर उन चेहरों की तावानियाँ भी
अन्दर दबाये हैं  
वही परेशानियां, वही मजबूरियां
जो मजबूरियाँ सोनागाछी में पसरी है
जी बी रोड में दफ़न है  
और हमारी जेबों के सिक्के
आमादा हैं उन मजबूरियों का अंत करने
नीली रौशनी के तले

याद दिलाता है मुझे
वो बेबीलोनी सभ्यता के लोग हों
या हम,  कुछ बदला नहीं
समय बदला, चेहरे बदले
लेकिन चाल नहीं बदली
वही बाज़ार है, वही खरीदार है
बस फर्क है कोई स्वेच्छा से नाच रही है
किसी को जबरन नचाया जा रहा है
कोई नीली रौशनी में डूब जाना चाहता है
किसी को नीली रौशनी में डुबाया जा रहा है

 (निहार रंजन, सेंट्रल, २८ मई २०१३)