Monday, December 3, 2012

आतिश-ओ-गुल



ये तो मैंने माना, ज़िन्दगी एक सज़ा है
पर कौन जानता है, इससे बेहतर क़ज़ा है

ये परवाने जानते हैं, या जानता है आशिक
कि आग में डूबने का, अपना एक मज़ा है

नश्तर के ज़ख्म हो तो, हो जाता है दुरुस्त
पर हाय ज़ख्म-ए-दिल की, अब तक नहीं दवा है 

काँटों से कब तक खेलूँ, हो चुके हैं हाथ छलनी 
कागज़ का भी चलेगा, दो कुछ भी जो फूल सा है 

दरिया में फैला ज़हर, और समंदर ठहरा खारा
इस तश्नालब के खातिर, रह गया बस मयकदा है
   
अब कैसे उठेगा धुआँ, अब कैसे उठेंगी लपटें
ना बची है आग, ना भड़काने को हवा है

उनको ही मौत मिलती, जो खुद ही मर रहे हैं
ऐसे में कैसे कह दूँ, इस दुनिया में खुदा है

लगता है जैसे सर से, उतरा है सारा बोझ
इस माथे को जब से, माँ ने मेरी छुआ है

(निहार रंजन, सेंट्रल, १८-११-२०१२)

क़ज़ा = मौत
दुरुस्त = ठीक
नश्तर = तीर
तश्नालब = प्यासे होंठ/प्यासा 
मयकदा = शराबखाना 

13 comments:

  1. बहुत सुंदर लिखा है ...
    शुभकामनायें .

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  2. वाह ... बहुत खूब

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  3. बहुत ही सुन्दर गजल है..
    :-)

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  4. gazal to bahut achchi lagi ...ye man ki hi baat hai ki kabhi jindagi ko khushi se kabhi maut se jod leta hai ...maine to ise aise likha tha..
    जीवन कोई सज़ा नहीं है
    दर्द तो है पर कज़ा नहीं है

    तेरे साथ है दुनिया मुट्ठी में
    वरना कोई मज़ा नहीं है

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    1. खूबसूरत ख़याल शारदा जी. दोनों शेर अच्छे लगे.

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  5. नश्तर के ज़ख्म हो तो, हो जाता है दुरुस्त
    पर हाय ज़ख्म-ए-दिल की, अब तक नहीं दवा है

    काँटों से कब तक खेलूँ, हो चुके हैं हाथ छलनी
    कागज़ का भी चलेगा, दो कुछ भी जो फूल सा है

    लाजवाब सर!

    सादर

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  6. वाह......बहुत खुब.

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  7. शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन.
    बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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