Sunday, September 21, 2014

अणुमा-बोध

इस अंतहीन विस्तार में
मैं देखता हूँ चालाक, चतुर आँखें
सुनता हूँ, वासना की लपलपाती जीभ पर दौड़ते
वीर्यधारी महापुरुषों का उद्घोष
घोर तृप्ति, घोर संतोष
पाता हूँ, अपने कर्णपटों पर सुतिक्त स्वाद
आधुनिक सुप्रभ दुनिया का अपरिमित अभिमाद

शिखर है, शिखर-रोहण की अदम्य चाह है
ज्यों दिखता उसमे मृगजलीय प्रवाह है
मेरे सुख की जिद में, अनायास आबद्ध 
श्रृंगारवेगी सुनयनाओं की धाह है
ध्वनि उठती है, प्रतिध्वनि आती है
‘महाजनो येन गतः सः पन्था:’
मैं हँसता हूँ, ढूंढता हूँ कोई पथ
कोई निरंक मन, कोई वन-प्रांतर
कोई अनुसूया, कोई दशाश्वमेध घाट
वारा और असि के लुप्त कलकल स्वर

हर नंगे देह में मैंने छुपा देखा
जीवन के चार अक्षर और मृत्यु का अभिशप्त मंदिर
समय के फांस में कसमसाती कोशिकाएं
ईश् अनुस्मृतियों के क्षण में विस्तृत लालसाएं
चार अक्षरों के सम्मिलन में है जीवन
कहता रहा महापुरुषों से, एक वातानुकूलित गृह
नहीं अभीष्ट मेरे जीवन का
नहीं अभीष्ट मेरा, बवेरिया या बॉस्टन की मानिनी
जो पंथ मेरा है 'मटिहानी को गामिनी'
नहीं प्रेरणा मेरे, कायर देशद्रोहियों की मरोड़ी जीभें
नहीं स्वप्न मेरा यह ऋद्धिमय संसार
इस शापित विजय से सौख्य हो उन वीरों को
ऋद्धि हो उनके भरे तूणीरों को
मैं संघर्ष मांगता हूँ, मैं ताप मांगता हूँ
मैं मरोड़ी जीभों से छना हुआ शाप मांगता हूँ
मैं इतना ही जानता हूँ 
चार अक्षरों के जीवन में होते हैं कुछ साल
खिलखिलाकर हँसता है जिसपर मृत्यु का महाकाल


(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड स्ट्रीट,  २१ सितम्बर २०१४)

Saturday, September 6, 2014

आदमी क्या चाहता है?

आमावस्या के टिमटिमाते तारों की फ़ौज के बीच से
पूर्णिमा की निर्मल विभा के बीच भागते हुए
मन बार-बार यही पूछता है-
आदमी क्या चाहता है?

रंगहीन, रव-हीन आकाश की शून्यता से भागकर  
इन्द्रधनुषी रंगों के बीच खड़ी वयसहीन आकृतियों से लिपटते हुए  
ध्वनित मन बार-बार यही पूछता है-
आदमी क्या चाहता है?

जय और पराजय की कुटिल कलाबाजी में
व्यर्थ विभ्रांतियों से म्लात, द्विधा-जात
मौली-लोलुप मन बार-बार यही पूछता है-
आदमी क्या चाहता है?

मृत्यु और जीवन के गवेषित पथों के बीच से
दीदारू किरण-पुंजो की लालसा में
विसौख्य धरे मन, बार-बार यही पूछता है-
आदमी क्या चाहता है?

मरु-कूपों को उलछने की जिद लिए
निष्ठ, अक्लांत मनु-सुतों से
मृन्मयी सांचा बार-बार यही पूछता है-
आदमी क्या चाहता है?

नागरी-जंग में लास-रत बेहोशों से
फूस के अपने घरों से दूर किये कोसों से
अर्थ-सिन्धु में पन्न, पतित के दोषों से
पश्चिम में धमके श्लेषित रूपोशों से
मन बार-बार यही पूछता है-
आदमी क्या चाहता है?

महलों के खंडहरों में कुत्ते भौंकते है
सभागारों में चुड़ैलें पायल बजाती है
सितारों के तार कसे हुए हैं
अफ़सोस !नहीं कोई यहाँ बसे हुए हैं
क्षणिक स्थैर्य के इन्ही प्रतिमानों से
मन बार-बार यही पूछता है-
आदमी क्या चाहता है?


(निहार रंजन, ऑर्चर्ड स्ट्रीट, ६ सितम्बर २०१४)