इस अंतहीन विस्तार में
मैं देखता हूँ चालाक, चतुर
आँखें
सुनता हूँ, वासना की लपलपाती जीभ पर
दौड़ते
वीर्यधारी महापुरुषों का
उद्घोष
घोर तृप्ति, घोर संतोष
पाता हूँ, अपने कर्णपटों पर सुतिक्त
स्वाद
आधुनिक सुप्रभ दुनिया का
अपरिमित अभिमाद
शिखर है, शिखर-रोहण की अदम्य
चाह है
ज्यों दिखता उसमे मृगजलीय
प्रवाह है
मेरे सुख की जिद में, अनायास आबद्ध
श्रृंगारवेगी सुनयनाओं की धाह है
ध्वनि उठती है, प्रतिध्वनि
आती है
‘महाजनो येन गतः सः पन्था:’
मैं हँसता हूँ, ढूंढता हूँ
कोई पथ
कोई निरंक मन, कोई
वन-प्रांतर
कोई अनुसूया, कोई दशाश्वमेध
घाट
वारा और असि के लुप्त कलकल
स्वर
हर नंगे देह में मैंने छुपा
देखा
जीवन के चार अक्षर और
मृत्यु का अभिशप्त मंदिर
समय के फांस में कसमसाती कोशिकाएं
ईश् अनुस्मृतियों के क्षण
में विस्तृत लालसाएं
चार अक्षरों के सम्मिलन में
है जीवन
कहता रहा महापुरुषों से, एक
वातानुकूलित गृह
नहीं अभीष्ट मेरे जीवन का
नहीं अभीष्ट मेरा, बवेरिया या
बॉस्टन की मानिनी
जो पंथ मेरा है 'मटिहानी को गामिनी'
नहीं प्रेरणा मेरे, कायर देशद्रोहियों
की मरोड़ी जीभें
नहीं स्वप्न मेरा यह ऋद्धिमय संसार
इस शापित विजय से सौख्य हो
उन वीरों को
ऋद्धि हो उनके भरे तूणीरों को
मैं संघर्ष मांगता हूँ, मैं
ताप मांगता हूँ
मैं मरोड़ी जीभों से छना हुआ
शाप मांगता हूँ
मैं इतना ही जानता हूँ
चार अक्षरों के जीवन में
होते हैं कुछ साल
खिलखिलाकर हँसता है जिसपर
मृत्यु का महाकाल
(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड
स्ट्रीट, २१ सितम्बर २०१४)
मैं इतना ही जानता हूँ
ReplyDeleteचार अक्षरों के जीवन में होते हैं कुछ साल
खिलखिलाकर हँसता है जिसपर मृत्यु का महाकाल ..
सच पूछप तप जीवन का सत्य तो यही है ... कुछ सालों की साँसें, खिलखिलाते साल और मृयु का महाकाल ... बहुत ही गहरा प्रभाव छोड़ती है ये रचना ...
विडंबना की इन्हीं परिस्थितियों में तो सीधा जीवन तिरोहित हुआ जाता है।
ReplyDeleteमैं मरोड़ी जीभों से छना हुआ शाप मांगता हूँ.... बॉस्टन की मानिनी के बाद ही
ReplyDeleteमटिहानी को गामिनी' का अर्थ समझ आता है , यही प्रकृति भी है ... समय करवट लेता रहेगा कल होकर शायद यही रह मतिहानी होकर बोस्टन की ओर जाये।
गहरे अर्थ लिये सुंदर रचना...
ReplyDeleteGahan prastuti.... Badhaayi!!!
ReplyDeleteयथार्त की गहन अनुभूति निहार भाई! हाल ही में ओशो रजनीश का एक वीडियो देख रहा था, बहुत कुछ इन्ही बातों का समावेश था उसमें।
ReplyDeleteआपकी रचनाएँ सत्य को बिंदास परोसती हैं! हमेशा ही अच्छा लगता है पढ़ना!
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
कविता में कथ्य और शिल्प का नयापन भा गया ।
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें !
मैं हँसता हूँ, ढूंढता हूँ कोई पथ
ReplyDeleteकोई निरंक मन, कोई वन-प्रांतर
कोई अनुसूया, कोई दशाश्वमेध घाट
वारा और असि के लुप्त कलकल स्वर
यही है जीवन। गहरे पैठ के लिखे हैं।
वाह.. बेहतरीन।।
ReplyDeleteआपकी हर रचना निःशब्द कर देती है
बहुत प्रेरक निशब्द हूँ, सार्थक रचना पढ़कर बहुत खुश भी !
ReplyDeleteबहुत ही गहरा प्रभाव छोड़ती है ये रचना .
ReplyDeleteहर नंगे देह में मैंने छुपा देखा
ReplyDeleteजीवन के चार अक्षर और मृत्यु का अभिशप्त मंदिर
जीवन का सबसे बड़ा सत्य 'मृत्यु'
बहुत सुन्दर !
अद्भुत...
ReplyDeleteचार अक्षरों के जीवन में होते हैं कुछ साल
ReplyDeleteखिलखिलाकर हँसता है जिसपर मृत्यु का महाकाल
फिर भी हम समझ नहीं पाते हैं ...........