ये कैसा बंधन जिसमे तुम
घने घन की तरह उठकर
मुझमे ही प्रस्तारित हो
स्निघ्ध स्नेह सलिल बनकर
भिंगोती बाहर अंदर
ये कैसा बंधन जिसमे तुम
मदमाती सुवास बन आती हो
शिराओं में स्थान
बनाकर
हर स्पन्दन संग बहती जाती
हो
मेरे ही मुस्कानों में
मुस्काती हो
और सम्मुख होने से लजाती हो
ये कैसा बंधन जिसमे तुम
बूँद-बूँद अनुक्षण रिसते
हिमशैल की तरह पिघलती हो
नदी धारा का प्रवाह बनकर
जिधर मन हो चलती हो
उन्मुक्त लहर बन मचलती हो
ये कैसा बंधन जिसमे तुम
और हम एक ही वृत्त के दो परिधि-बिंदु है
हमारे बीच की रेखा व्यास है
बस एक यही प्यास है
कि ये तिर्यक रेखाएं, ये त्रिज्या, ये कोण
क्यों नहीं होते गौण
व्यास के ये दो बिंदु नादान
मिल क्यों नहीं करते एक नए वृत्त का निर्माण
(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १० जुलाई २०१६)
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 11 जुलाई 2016 को लिंक की गई है............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteकविता में भाव प्रवाह कैसा हो, इसकी नजीर पेश करना कोई आपसे सीखे..
ReplyDeleteउन्मुक्त लहर की मानिंद बहती हुई बेहतरीन पोस्ट.
bahut sundar rachna..
ReplyDeleteप्रेम का बंधन तो अपने आप में वृत्त है, टीकों है, और सीढ़ी रेखा भी है ... वैसे तो ये बंधन भी नहीं है ... उमड़ती घुमडती सागर सी हिलोयें लेती लाजवाब रचना है ...
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत
ReplyDeleteये कैसा बंधन जिसमे तुम
ReplyDeleteऔर हम एक ही वृत्त के दो परिधि-बिंदु है
हमारे बीच की रेखा व्यास है
बस एक यही प्यास है
कि ये तिर्यक रेखाएं, ये त्रिज्या, ये कोण
क्यों नहीं होते गौण
व्यास के ये दो बिंदु नादान
मिल क्यों नहीं करते एक नए वृत्त का निर्मा
bahut khoob!!