मैं बंधा उस डोर से
जिस डोर में तुम बंध गए तो
क्या ये अंबर, क्या ये
चिलमन
क्या ये उपवन, क्या ये
निर्जन
क्या ये बादल, क्या ये शीतल
क्या गगन ये खाली-खाली
क्या गिरि के तुंग पर बैठे
हुए से, पूछता है ये सवाली
तुम बताओ! तुम बताओ
क्यों भला इस डोर के दो छोर
को मिलने ना दोगे
क्यों भला चटकी कली खिलने
ना दोगे
मैं हूँ डूबा उस नशे में
जिस नशे में तुम मियाँ डूबे
अगर तो
रात से हिल-मिल के सहसा
पूछ लोगे एक दिन तुम चाँद
से
कि ओ रे दागी!
ओ रे दागी!
वो सितारा है कहाँ
ब्रम्हाण्ड में
जिसने पलक भर, मिलके बस इतना
कहा था
आऊँगा एक रोज शिद्दत से अगर
चाहा मुझे
बता दागी! कहाँ है वो
सितारा
बता दागी! कहाँ है वो किनारा
(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, ७
जुलाई २०१६ )
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " मज़हबी या सियासी आतंकवाद " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबता दागी... कलम को चैन कहाँ, कब तक ?
ReplyDeleteकितनी शिद्दत से बातें उठती हैं और मन-ह्रदय को अनन्त गगन में ले जाती है. ..
सुंदर
ReplyDeleteइस डोर में बस बंधन ही महत्त्व रखता है ... मिलन के अंत तक कितने ही उपवन, बाग़ बगीचे खिलेंगे ... फिर चोर दो खिल कर मिलेंगे ...
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