घन घनघोर घिरे अंबर
जड़ संभल हुआ तुरत सत्वर
ढन ढनन ढनन गूंजा चहुँओर
बिजली कड़की फिर मचा शोर
कृषको ने सोचा आ ही गयी
और बैठ गए धर हाथ-पाथ
संचित शंका का हो विनाश
कुछ मेह फटे, हो सलिलपात
पर नियति की लीला ऐसी, वो
धरा हाथ फिर मलता है
जब हवा का झोंका चलता है.
सन सनन-सनन, सन सनन-सनन
वह वायु-गुल्म, वह
ज्वार-यार
जिस ओर चला, सब तोड़
चला
जब त्यक्त उड़ा वो
पर-पसार
नहीं रुकने की है
चाह उसे
वो ग्रहिल, कुत्स्य―है कथा सार
शादाब सुमन का
परिमर्दन
ज्यों पीन पूतना
दुनिर्वार
ना रुकता है ना संभलता
है?
जब हवा का झोंका चलता है.
वो अनुध्यानित, वो
निर्विकार
मिलता जिसका ना आर-पार
वो पुष्ट, पृथुल, वो सदा
पूर्त
वो पुण्य, पुनीत, अद्ध्वान,
अमूर्त
वो दुखिया-दुखहर, लीलाधर
वो अम्बर, सागर, गिरि,
गह्वर
वो शस्य, भगलिया या गलार
मिल जाता एक दिन एक बार
बस स्वप्न यही, मन पलता है
जब हवा का झोंका चलता है.
एक पिपासा है निशि-दिन
एक कथा अपूरित है जिस बिन
वो मन-मयूख की एक मलका
महमंत
वो एक किरदार नहीं जिसका है
अंत
वो दृगचल की है आस, आस और
ज्योत
वो वल्लभ, वांचित, वेगवती, सुख-स्रोत
वो व्याधि ऐसी जिससे अपरिचित बैद
वो सिंजा जो बरसों से
रक्षित, कर्ण-कैद
वो सिंजा आज भरे मन में,
फिर झनन-झनन झनकता है
जब हवा का झोंका चलता है.
(आदरणीय नासवा जी के नाम)
(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १८
अगस्त २०१७)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, 'महाकाल' की विलुप्तता के ७२ वर्ष - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteव्यथित और विवश,उथल-पुथल मन की जहां शब्द गाथा। इतने दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर? आशा है स्वस्थ होंगे.
ReplyDeleteसुरभित कर गया ये हवा का झोंखा !!
ReplyDeleteवाह..शब्दों का ऐसा वेग जैसे बरस रहे हों..
ReplyDeletebadhiya
ReplyDeleteये हवा का झोंका अंतस तक न सिर्फ भिगो गया आपकी लेखनी का चमत्कार भी दिखा गया ... और ये मेरा सौभाग्य है की ये रचना मेरे नाम है ... आपकी रहना की लम्बे समय से प्रतीक्षा थी जो आज पूरी हुयी ... देर से आया पर दुरुस्त आया ...
ReplyDeleteवो अनुध्यानित, वो निर्विकार
मिलता जिसका ना आर-पार
वो पुष्ट, पृथुल, वो सदा पूर्त
वो पुण्य, पुनीत, अद्ध्वान, अमूर्त
वो दुखिया-दुखहर, लीलाधर
वो अम्बर, सागर, गिरि, गह्वर
वो शस्य, भगलिया या गलार
मिल जाता एक दिन एक बार
बस स्वप्न यही, मन पलता है
जब हवा का झोंका चलता है...
ये धारा पवाह रचना आपके संवेदनशील मन की गाथा है, व्याकुलता है जो आपको और आपकी लेखनी को विशिष्ट बनाती है ... इस प्रभावशाली रचना की बधाई ...
वो व्याधि ऐसी जिससे अपरिचित बैद
ReplyDeleteवो सिंजा जो बरसों से रक्षित, कर्ण-कैद
वो सिंजा आज भरे मन में, फिर झनन-झनन झनकता है
जब हवा का झोंका चलता है.
...सच में, शब्दों में चमत्कार है !
हवा का झोंका जब चलता है तो सब उड़ा ले जाता है
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