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Monday, December 3, 2012

आतिश-ओ-गुल



ये तो मैंने माना, ज़िन्दगी एक सज़ा है
पर कौन जानता है, इससे बेहतर क़ज़ा है

ये परवाने जानते हैं, या जानता है आशिक
कि आग में डूबने का, अपना एक मज़ा है

नश्तर के ज़ख्म हो तो, हो जाता है दुरुस्त
पर हाय ज़ख्म-ए-दिल की, अब तक नहीं दवा है 

काँटों से कब तक खेलूँ, हो चुके हैं हाथ छलनी 
कागज़ का भी चलेगा, दो कुछ भी जो फूल सा है 

दरिया में फैला ज़हर, और समंदर ठहरा खारा
इस तश्नालब के खातिर, रह गया बस मयकदा है
   
अब कैसे उठेगा धुआँ, अब कैसे उठेंगी लपटें
ना बची है आग, ना भड़काने को हवा है

उनको ही मौत मिलती, जो खुद ही मर रहे हैं
ऐसे में कैसे कह दूँ, इस दुनिया में खुदा है

लगता है जैसे सर से, उतरा है सारा बोझ
इस माथे को जब से, माँ ने मेरी छुआ है

(निहार रंजन, सेंट्रल, १८-११-२०१२)

क़ज़ा = मौत
दुरुस्त = ठीक
नश्तर = तीर
तश्नालब = प्यासे होंठ/प्यासा 
मयकदा = शराबखाना 

Saturday, November 24, 2012

विरहगान


बैरी रैन काटी नहीं जाय ,एक अजीब उलझन सी लागे
मैं तरसूँ रह-रह आस तोहारे, निश सारी डरन सी लागे

बाग़ ना सोहे मोहे बलमा ,बिन रंग लागे सारी बगिया
मैं बिरहन तड़पूँ तोहे पाने, हिय मोर जलन सी लागे

किसे पीर कहूँ मन माही, कोई अपना सा नहीं लागे
प्रीत की बातें हलक ना उतरे, दुनिया बंधन सी लागे

बादल जब से घिर आयो है, मोरी तपिश और बढ़ायो है 
झड़ झड़ गिरती इन बूँदों से, मोहे आज दहन सी लागे

भाये ना मुझको जूही वेणी, भाये ना मुझको चूड़ी कंगना
सौ सुख पा के रहूँ अधूरी,  कछु नहीं सजन सी लागे

बैठी हूँ आस तुम्हारी लिए, जब चाहो आ जाओ मिलने
जब तक तुम रहते मेरे मन में, धरती उपवन सी लागे

हाँ देर से आती है लेकिन, मन का विषाद उतरे गहरी
पसरे विष फिर उर अंतर में, ज्यों सांप डसन सी लागे

मैं ना भजति ईश्वर को, जो तुम ही  मेरे मन बसते
रटती रहती नित तोर नाम, मुझे वही भजन सी लागे

(निहार रंजन २७-९ २०१२)

Saturday, October 27, 2012

कुछ अशआर




नवा-ए-दिल

एक कल बीत चुका, एक कल आने को है
सुनो मेरे अहबाब, आज कुछ बताने को है   

किस-किस से बचता रहूँ सफ़र-ए-हयात में
हर किसी को आता दामन में दाग लगाने को है 

आबरू के खातिर ही गई मिटटी में सीता
नहीं तो क्या मज़ा धरती में समाने को है 

ये तुम भी जानते हो, जुल्मी है बड़ी ये दुनिया
बहुत लोग यहाँ नवा-ए-दिल को दबाने को हैं

डूबकर ही है मरना, तो आऊँगा तेरे दर पर
दिल चाहता तेरी आँखों में डूब जाने को है

बाँकपन भी , हया भी, तल्खी भी,  तेवर भी
कौन कहता है तुम्हे आता बस शर्माने को है

चश्म-पोशी नहीं की मैंने, बस दिल की सुनी
चश्म-ए-पुर-आब में क्या और दिखाने को है

बाज़ार से ले आऊँ, जो हो शिकस्ता आईना
है यहाँ कुछ जो शिकस्ता-दिल बचाने को है?

हस्त-ओ-बूद के हवादिस भूलकर बढ़ो आगे
ज़िन्दगी है तो  कई सितम आज़माने को है

गिर गए गर आप, खुद ही उठ संभलना है
वरना ये तो कहिये, क्या फर्क जमाने को है

बाद-ए-सबा, बाद-ए-समूम, बाद-ए-तुंद सब मिले
चले अब कोई हवा, क्या फर्क दिल-ए-बेगाने को है

सूख चुका है कब का, खौल कर रगों में खून
जमे अश्क आँखों में, नहीं कुछ और बहाने को है

लगी आग तो मिला नहीं कोई जो बुझाये उसे
हाँ मिले सौ जिन्हें आता आग भड़काने को है

कई बस्तियाँ जलायीं, कई इंसान भी जलाये
ओ सिरफिरों बताओ, क्या और जलाने को है

आये नहीं फिर से लौटकर जो गए बलम छोड़ गाँव
क्या ज़िंदगी वो, जिसमे ना कुछ रूठने मनाने को है

दूर तक  उठते हुए  धुएँ में दिखता नहीं मेरा गाँव
हद ये कि सिमरिया घाट पर ना गंगा नहाने को है

चाहता हूँ भूल जाऊँ सदा माज़ी के सारे दिन
करू क्या उस पैकाँ का जो दर्द जगाने को है

हुआ कब से नाशाद मेरा मन, बरबाद मेरा दिल है
दूर रहो अगर तमन्ना मेरे दिल में घर बसाने  को है


उन लोगों से ग़म है, जो सामने मीठा, पीछे और
अच्छा है तोड़ दो वो रिश्ते जो बस निभाने को है

दौलत भी गई, ताकत भी गई, रानाई और बीनाई भी
बिस्तर-ए-मर्ग पर लेटा हूँ, कोई कंधा बढ़ाने को है ?

याद जब-जब आती है अपने  गाँव में बचपन की
तसव्वुर में  लगता  कोई शोला भड़काने को है

चाहत इसकी नहीं मुझको, दराज़ उम्र मिले
चाहत हर लम्हों में ज़िंदगी बिताने  की है 

(निहार रंजन , सेंट्रल, २४-९-२०१२)

अहबाब- दोस्त 


सफ़र-ए- हयात = जीवन का सफ़र 

तल्खी = कड़वाहट 


चश्म-पोशी = निगाहे फेर लेना (यानि जान बूझ कर अनजानी करना )


चश्म-ए-पुर-आब = आँसूं भरे नयन 

शिकस्ता दिल = टूटा हुआ दिल 


हस्त-ओ-बूद = भूत और वर्तमान 


हवादिस = हादसा


बाद-ए-सबा = प्रात:कालीन हवा 


बाद-ए-समूम = लू के समय वाली हवा 


बाद-ए-तुन्द = आँधियों वाली हवा 


माज़ी = भूत, गुज़रा वक़्त 


पैकाँ = तीर की नोंक 


सिमरिया घाट = मेरे गाँव से गंगा नदी का सबसे करीब घाट 


नाशाद = अप्रसन्न 

रानाई = सुन्दरता 


बीनाई = आँखों की रौशनी


बिस्तर-ए-मर्ग = मौत की सेज

 
तसव्वुर = खयाल


दराज़ = लंबी

Friday, October 26, 2012

समय बड़ा बलवान


माज़ूर

लाख बहलाता हूँ दिल को, लेकिन  बहल पाता नहीं
बना पीर का सागर ह्रदय, अब कुछ मुझे भाता नहीं 

रौशनी ही रौशनी चारों तरफ फैली हुई है क्षितिज में 
लेकिन अंधेरों के नगर की कैद से निकला जाता नहीं

रह रह के चिंगारियाँ फूटकर शोले मन में भड़काती है
करो लाख जतन, किसी का गुजरा वक़्त आता नहीं    

विद्रोह की हुँकार उठाओ, या क्रांति  की लौ जलाओ
कुछ मतलबपरस्त है जिन्हें बस बात समझाता नहीं

चारों तरफ यही नज़ारे हैं, कहीं बम कहीं बारूद
है कौन बशर इस दुनिया में जिसे वक़्त सताता नहीं

(निहार रंजन, सेंट्रल, १४-७-२०१२) 


Wednesday, August 29, 2012


ज़मीन ज़ुमाद, ना ज़ुमाद वक्त

वही फैला आकाश, वही चाँद, वही टिमकते तारे हैं
अब भी हीर है, राँझे हैं, और जमाने की दीवारें है

कही खापवाले, कही पिस्तौलवाले, कही त्रिशूलवाले
हर तरफ फिरती मेरी तलाश में प्यासी तलवारें हैं

मुद्दत से बदनाम हुए है जो चले है राह-ए-इश्क
ज़माने ने किये अक्सर गर्दिश में उनके सितारे हैं

दूर तक नज़र आते है बस अंधेरों के घने डेरे
पतझड़ तो आ जाता है, बस आती नहीं बहारें हैं

मैं क्यों  भागता फिरूं ज़माने की नज़रों से दूर
बस इसलिए कि मुहब्बत में अपना दिल हारे हैं

(निहार रंजन २९-८-२०१२)