ज़मीन ज़ुमाद, ना ज़ुमाद वक्त
वही फैला आकाश, वही चाँद,
वही टिमकते तारे हैं
अब भी हीर है, राँझे हैं,
और जमाने की दीवारें है
कही खापवाले, कही
पिस्तौलवाले, कही त्रिशूलवाले
हर तरफ फिरती मेरी तलाश में
प्यासी तलवारें हैं
मुद्दत से बदनाम हुए है जो
चले है राह-ए-इश्क
ज़माने ने किये अक्सर गर्दिश
में उनके सितारे हैं
दूर तक नज़र आते है बस अंधेरों
के घने डेरे
पतझड़ तो आ जाता है, बस आती
नहीं बहारें हैं
मैं क्यों भागता फिरूं ज़माने की नज़रों से दूर
बस इसलिए कि मुहब्बत में
अपना दिल हारे हैं
(निहार रंजन २९-८-२०१२)
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