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Saturday, July 6, 2013

व्योम के इस पार, उस पार

एक भुजंग, एक दादुर
भुजंग क्षुधा आतुर
दादुर बंदी यतमान
भीत भ्रांत भौरान
संफेट का नहीं प्रश्न
बस निगीर्ण  प्राण
ना उल्लाप ना आह
विधि का विधान  

एक वरिष्ठ, एक कनिष्ठ
वरिष्ठ का रौरव नाद
कनिष्ट प्रनर्तित, नाशाद
वश्य, विकल्पित, विकांक्ष
अवधूत, यंत्रित, निर्वाद
पर-भार से लादमलाद
अभीप्सित सतत परंपद
बर्बाद,  जीवन आबाद

एक ग्रह, एक लघु-पिंड
ग्रह-गुरुता का अहर्निश प्रहार  
लघु-पिंड, बलाकर्षित लाचार
निरुपाय, निरवलंब, निराधार  
सदैव सचिंत मुक्ति आकुल
अस्तित्व भय दुनिर्वार
सकल व्योम में यही खेल
इस पार, उस पार

(निहार रंजन, सेंट्रल, ५ जुलाई २०१३)

यतमान = यत्न करता हुआ ( मुक्ति के लिए)
भौरान = भौंराया हुआ 
संफेट = तकरार 
निगीर्ण = जो निगला गया हो 
रौरव = भीषण 
प्रनर्तित = जिसे नृत्य कराया गया हो 
दुनिर्वार = जिसका निवारण ना किया जा सके   

Saturday, June 29, 2013

ज़िन्दगी को चलना है

ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

हर्ष हो, उल्लास हो
गुम हुआ उजास हो
पर्ण-पर्ण हों नवीन
या जगत हो प्रलीन
हम तो बस प्यादे हैं
कदम-कदम बढ़ना है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

प्रलय यूँ ही आएगा
प्रलय यूँ  ही जाएगा
बन्धु साथ आयेंगे
फिर वो छूट जायेंगे
यही रीत चलती आई
आह हमें भरना  है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

कहाँ हमें शक्ति इतनी
रोक लें तूफ़ान को
कहाँ हमें जोर इतना
बाँध लें उफान को
नियति निर्णायक है  
बुझना कि जलना है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

कर्म सारे पाक थे
सत्य लिए डाक थे
उसके निर्मम खेल से
सब के सब अवाक थे  
सदियों से वही उलझन है
सबको ही उलझना है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

धार में घिरे निरीह    
काल कर में फंसे
दे आघात वो चले
प्राण में जो थे बसे
प्रत्यागत हुआ कौन
क्रूर बहुत बिधना है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

उठाकर गिरा देना
बनाकर मिटा देना
छिपाकर बता देना
दिखाकर छुपा लेना
सारा उसका व्यूह है
सबको ही गुजरना है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

किस पर रोऊँ आज
भग्न तार, भग्न साज़
सर्वत्र उज्जट, सर्वत्र ध्वंस   
सर्वत्र नाग का है दंश 
तिल-तिल ही जीना है  
तिल-तिल ही मरना  है  
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

हों समर्थ मेरे हाथ  
तो बारहा बहार हो
ख़ुशी बसे आँखों में  
ना कि अश्रु-धार हो
मेरी मगर कौन सुने
करता वो, जो करना है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है

सब हुए है मनोहंत
विकल हरेक प्राण है
है व्यथा पहाड़ सा
आसान नहीं त्राण है
और कुछ बचा नहीं
खुद से फिर संभलना है
ज़िन्दगी का क्या है
ज़िन्दगी को चलना है 


(निहार रंजन, सेंट्रल, २६ जून २०१३)