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Sunday, June 9, 2013

दिलबस्त

ज़ब्त कर लो
ह्रदय की उफान
बेरोक आँसू
सिसकियों की तान
म्लिष्ट शब्द तुम्हारे
और ये बधिर कान
व्यर्थ रोदन में
नहीं है त्राण
समय देख प्रियतम !

तचित मन की दाझ
ये बादल बेकार
बस नहीं इनका
दें तुझको तार
अंधियारी रातों से
एकल आवार
सपने! हाँ वही
रहे जिंदा तो हों साकार 
समय देख प्रियतम !

किस बात का मलोल
शिकायतों को छोड़
खुली आँखों से देख
भुग्न-मन की जड़ता तोड़
उत्कलित फूलों पर
सुनो भ्रमरों का शोर
पाओ चिंगारी को
जाते वारि-मिलन की ओर
समय देख प्रियतम !

ताखे की ढिबरी से
अपना काजल बना
पायल बाँध पैरों में  
गाढ़ा अलक्त रचा
मन आकुंचन को
असीमित विस्तार दिला
दृप्त मन से
फिर से गीत गा 
समय देख प्रियतम !

(निहार रंजन, सेंट्रल, ६ जून २०१३)

दाझ = जलन 

Sunday, May 26, 2013

जिसने की निंदिया की चोरी



जिसने की निंदिया की चोरी

जिसने की निंदिया की चोरी
उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

मन आँगन में जिसने आकर
चिर-प्रकाश का दीप जलाकर
नंदित कर मन का हर कोना
फिर तन्द्रा से मुझे जगाकर
मधुरित कर जो बाँध गई वो 
जाने कैसी प्रीत की डोरी

उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

मन-मरू में वो विजर जान बन
अनुरक्ता बन, मेरा प्राण बन
कंटक पथ पर फूल बिछाये
आ जाती है मेरा त्राण बन
कभी मृग-वारि जैसी खेले
कभी वो गाये मीठी लोरी 

उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

वो प्रियंकर गीत बन कर
दाह में आ शीत बन कर
खेलती रहती है मन से
एक लजीली मीत बन कर  
निभृति त्यजकर हो सन्मुख
काश! वो करती बातें थोड़ी

उसी की ढोरी, उसी की ढोरी

(निहार रंजन, सेंट्रल, २६ मई २०१३)


ढोरी = उत्कट लालसा 

Monday, April 15, 2013

कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!


ये मेरी मंजुल-मुखी,
खो ना जाए इस तमस में
इसलिए है छुपा रखा
मैंने इसे पंजर-कफस में
संग मेरे  स्वप्न में
संग है हर श्वास में
अरुणिमा सी मुदित करती
मेरे मन आकाश में
घूमती रहती है निशदिन
सींचती मुस्कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

जादुई इसकी छवि है
दहकते से इसके अधरज
देख जिसको मन ने बोला
कौन जाए इसको त्यज
मधुरिमा संसार की
संसार की रानाइयां
संसार की अटखेलियाँ
संसार की रुस्वाइयां
झनकती पाजेब इसकी
करती गुंजित कान को
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को!

ये मेरी चंचल सखी
करती मुझे उद्भ्रांत है
और फिर चुपके से छूकर
कर देती मन शांत है
ये जो इसके नाज़-नखरे
और ये पुतली का जाल 
अलकों-पलकों की दुश्वारी
उस पर ये वाचाल
चमका देती मन में सूरज
हो आशा अवसान तो
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

ना गलबांही, ना आलिंगन
ना मेरे अधरों से चुम्बन  
मांगे बस बरसों से मुझसे
हर पल का निःस्वार्थ समर्पण 
फिर मेरे प्रतप्त ह्रदय को
करती है शीकर से सिंचन
मुस्काकर जब वो कह देती
धृतिमान हो! ‘करना करग्रहण’
ठहरे मेरे मन में फिर से  
ले आती तूफ़ान वो   
कैसे तज दूं ‘प्राण’ को

(निहार रंजन, सेंट्रल, १४ अप्रैल २०१३)