Saturday, December 26, 2015

प्राण मेरे तुम कहाँ हो

 उठ चुकी हैं सर्द आहें
कोसती है रिक्त बाहें
उर की वीणा झनझना कर पूछती है आज मुझसे
गान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?

दिन ये बीते जा रहे हैं, रात लम्बी हो रही है
पा रहा है क्या ये जीवन, क्या ये दुनिया खो रही है  
क्या पता था दो दिनों का साथ देकर मान मेरे ..........?
मान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?

क्षितिज में है शून्यता, छाया अँधेरा
जम चुका है तारिकाओं का बसेरा   
कितने निर्मम तुम भी लेकिन चान मेरे
चान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?


(ओंकारनाथ मिश्र, ग्वालियर, २७ दिसम्बर २०१५ )