कोसती है रिक्त बाहें
उर की वीणा झनझना कर पूछती
है आज मुझसे
गान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?
दिन ये बीते जा रहे हैं, रात
लम्बी हो रही है
पा रहा है क्या ये जीवन, क्या
ये दुनिया खो रही है
क्या पता था दो दिनों का
साथ देकर मान मेरे ..........?
मान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?
क्षितिज में है शून्यता,
छाया अँधेरा
जम चुका है तारिकाओं का
बसेरा
कितने निर्मम तुम भी लेकिन चान
मेरे
चान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?
(ओंकारनाथ मिश्र, ग्वालियर, २७ दिसम्बर २०१५ )