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Sunday, June 9, 2013

दिलबस्त

ज़ब्त कर लो
ह्रदय की उफान
बेरोक आँसू
सिसकियों की तान
म्लिष्ट शब्द तुम्हारे
और ये बधिर कान
व्यर्थ रोदन में
नहीं है त्राण
समय देख प्रियतम !

तचित मन की दाझ
ये बादल बेकार
बस नहीं इनका
दें तुझको तार
अंधियारी रातों से
एकल आवार
सपने! हाँ वही
रहे जिंदा तो हों साकार 
समय देख प्रियतम !

किस बात का मलोल
शिकायतों को छोड़
खुली आँखों से देख
भुग्न-मन की जड़ता तोड़
उत्कलित फूलों पर
सुनो भ्रमरों का शोर
पाओ चिंगारी को
जाते वारि-मिलन की ओर
समय देख प्रियतम !

ताखे की ढिबरी से
अपना काजल बना
पायल बाँध पैरों में  
गाढ़ा अलक्त रचा
मन आकुंचन को
असीमित विस्तार दिला
दृप्त मन से
फिर से गीत गा 
समय देख प्रियतम !

(निहार रंजन, सेंट्रल, ६ जून २०१३)

दाझ = जलन 

Wednesday, April 3, 2013

आशा का दीप

आशा का दीप


लौ दीप का अस्थिर कर जाता है
जब एक हवा का झोंका आता है
पल भर को तम होता लेकिन
फिर त्विषा से वो भर जाता है
इस दीप की है कुछ बात अलग
यह दीप नहीं बुझ पाता है

मैं तो स्थिर हो चलता हूँ
पर हिल जाता है भूतल
डगमग होते हैं पाँव मगर  
कर मेरे रहता दीप अटल    
लौ घटती-बढती इसकी लेकिन
यह दीप नहीं बुझ पाता  है

श्रमजल से सिंचित यह प्रतिपल
जाज्व्ल्यमान यह दीप अचल
बाधा के पतंगों से लड़कर
मुस्काता रहता है अविरल
पतंगा आता है, मर जाता है
पर दीप नहीं बुझ पाता  है

(निहार रंजन, सेंट्रल, २९ मार्च २०१३).