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Tuesday, August 7, 2012

कोसी मैया? (Mother Kosi ?)


निर्लज्ज

देखा सदियों से हमने
तेरा विकराल स्वरुप
जो थी तुझमे पहले
वैसी अब भी  भूख

चाँद सितारे ना बदले
ना बदला तेरा ढंग
रक्त पिपासा ना बदली
ना बदला रूप ये नंग

क्यों ऐसी हो मतवाली
फिरती रहती हो यहाँ-वहाँ
तनय-तनयी हरती रहती हो
जाती हो तुम जहाँ-जहाँ

हे उन्मत्ता मुझे बताओ 
है कैसा ये प्रतिशोध
हो संहारिणी उसी की
जो  पले है तेरी गोद

एक एक तिनके जोड़कर
बने थे  जिसके घर
एक क्षण में ले गयी
तू सीधे अपने उदर

क्या मिलता है देख
उन्हें, हुए जो बेघरबार
किस से है तेरी लड़ाई
क्यों एकतरफा रार

कैसा तेरा पुत्रशोक यह
ये तो है पागलपन
देख तू अपनी गोद में
कहाँ घर, कहाँ वसन

क्या ज्ञात तुम्हे है
क्या होता माँ का धर्म
क्या ज्ञात तुम्हे है
क्या होता माँ का कर्म

जनने से नहीं होती,
माँ,  होती पालनहारा
इसलिए रण-मध्य में
कर्ण ने कुंती को दुत्कारा

कैसे कह दूं माँ  उसे
जो बदल बदल अपनी धारा
कभी पूरब, कभी पश्चिम
असंख्य जीवन को  संहारा

एक बात  कहता हूँ
हे चिरकुमारी, तन्वंगी
बहुत कुरूप लगती हो
जब नाचती हो तुम नंगी.

~निहार रंजन  ( १-८-२०१२ )

Sunday, August 5, 2012

मिटटी मेरी पुकारे


कितने बीते मनभावन सावन
कितनी जली होलिका, रावण
पर हाय  तपस्या में हर क्षण
विकल प्रतिपल अकुलाता मन
जीता  बस  यादों के सहारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे


जीवन की आपाधापी में
कैसे रखूँ खुद को हर्षित
कुसुम प्राप्ति की अभिलाषा में
तन अर्पित , जीवन अर्पित
कब तक अब यूँ मन मारें 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

कोसी धारा, मिथिला की धरा
जिस पर मेरा शैशव गुजरा
मिले राह में दुःख-सुख
बदला जीवन में हर कुछ
पर उस धरा के हम आज भी दुलारे
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

जब मन विचलित हो जाता है
मिटटी की याद सताती है
तज देता  प्राण जब तन को
बस मिटटी ही अपनाती है
अब छोड़ दुनिया के झंझट सारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

(निहार रंजन ५-५-२०१२)