Showing posts with label कविता. Show all posts
Showing posts with label कविता. Show all posts

Saturday, July 20, 2013

नव-निर्माण

गुरु कवियों ने शायद
यही मान लिया था
रस  हीन शब्द कविता नहीं,
जान लिया था
और कविता में रस-फोट
करने का ठान लिया था
कभी रसिया चरित्र का
सौद्देश्य निर्माण कर 
तो कभी राधा-कृष्ण रस-केलि का
जीवंत बखान कर
रची जाती रही कविता
गीत-गोविन्द या रसमंजरी  
बहती ही रही रस-लहरी 
क्या भक्तिकाल, क्या रीतिकाल
क्या जयदेव, क्या रसलीन
शब्द हुए नहीं रास-रक्तिहीन 
जो राजाओं के स्वर्ण मोहरों ने
कलम में भर दी स्याही रस की 
होता रहा उनसे सतत रस-स्राव
तृप्त होता रहा समस्त दरबार
कवियों को मिलता रहा आहार

रसहीनता कहाँ जब स्त्री देह का
सामने था नवला, चंचला रूप
आद्योत उसी से था कवि मन-मंकुर
वहीँ रसथल में प्रस्फुटित हुआ अंकुर
उगे सघन पेड़, मिली शीतल छांह
विचरती मोहिनी से मिली गलबांह 
उथल पड़ा वहीँ रस-सागर
चलता रहा रोम-रोम रस मंथन  
इसीलिए कभी अग्निपुराण
तो कभी ब्रम्हवैवर्त में
कलम को रुकना ही पड़ता था
नगर की स्त्रियों का असह्य यौवन भार
सबको कहना ही पड़ता था
उसी रस-चाशनी से पुराण
करते रहे जनकल्याण
चलता रहा रस के कुँए पर
मधुर काव्य सृजन
मुग्धा रस-घट भरती रही
उसके वक्र-कटि पर भरा घड़ा 
सरेराह छलकता रहा
कवियों की प्यास बुझती रही
कविता की निर्बाध रसमय यात्रा
सदियों से चलती ही रही  

सदियों की यात्रा के बाद
परिवर्तित रूप में भी वही हाल है
किसी मुदिता की मुख-चांदनी पर  
सारे शब्द निढाल हैं
ख़याल-ऐ-यार है
तो कविता में बहार है
वो  हंस दे मन में
तो शब्द मुस्कुराएं
और रूठ जाएँ
तो शब्द मुरझाएं  
और यादें रसीले शब्द बन जाएँ
तो पूरा चारबाग झूम जाए  
लेकिन पुराने उपमाओं, अलंकारों में
विरह-राग में, पायल की झनकारों में
कब तक कैद रहे कविता?
कब तक उन्हीं रसों से बने
आसव और अरिष्ट
क्यों ना बहे
कविताओं में नूतन समीर
क्यों ना मिले कविताओं में
सिर्फ निर्मल नीर!

उठे भूख की आवाज़ शेष  
उभरे ह्रदय में अंतर्निहित क्लेश
रांझे की पीर का बहुत हुआ बखान
आओ कविताओं में लायें विज्ञान
लौटे स्त्री-देह में, लेकिन गर्भ में
करें अपना जीवन संधान  
सोचें डीएनऐ की, कोशिकाओं की
विज्ञान के असीमित संभावनाओं की 
धमनियों की, मस्तिष्क खंड की
गर्भाशय से चिपके मेरुदंड की
भ्रूण की, उसमे ह्रदय स्पंदन की
नव जीवन के अंकुरण की  
जननी के रक्षा आवरण की
उसके छातियों से निकले प्रोटीन की
आनुवांशिकी की, जीन की
लैकटोज की, फ्रक्टोज की
ग्लूकोज और गैलेक्टोज की 
या कूच करें अंतरिक्ष में
तारों से रू-ब-रू हो लें 
चाँद के सतह का विश्लेषण करें
निर्वात की बात करें
और खो जाएँ महाशून्य में
सोचें पृथ्वी की कहानी
कैसे कहें कविता की जुबानी
यह जानकर भी
कि पृथ्वी, निर्वात, या शून्य में  
कविता का रस सूख जाता है
नाभि से खिसक नाभिक वर्णन से  
कविता का रस सूख जाता है
कवि-मन पर लगाम लगाने से 
कविता का रस सूख जाता है
मगर ग़ालिब की अमर शायरी के लिए
शकील के शीरीं बोल के लिए
या दिनकर की आत्मा की आवाज़ सुनकर
रस को दें थोड़ा त्राण  
आओ कविजन! रस से हटकर   
कविता में हो कुछ नव-निर्माण

(निहार रंजन, सेंट्रल, १ जुलाई २०१३)


चारबाग - लखनऊ का रेलवे स्टेशन ( वहाँ पर सन २००२ में सुने काव्य की स्मृति  )

Friday, March 15, 2013

प्यार की वैज्ञानिक कविता

प्यार की वैज्ञानिक कविता
स्मृति के चुम्बक पर
बारहा लौट आते हो
लौह दिल के मालिक
यास दिए जाते हो

मन नाभिक के पास   
इलेक्ट्रान बने घूमते हो
आतंरिक कक्षा में बने
ना समीप ना दूर होते हो
क्यों मेरे ह्रदय कक्ष में
असीर हुए जाते हो
लौह दिल के मालिक
त्रास दिए जाते हो

अम्ल दग्ध मैं हुई हूँ
क्षार क्षरित मैं जियी हूँ
लवण की है चाह मुझको
लावण्यता समेटी खड़ी हूँ
मन में सान्द्र गंधकाम्ली
तासीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
प्यास दिए जाते हो

कब सुनोगे बाबूजी! संभालो
जरा  प्रेम-टीलोमर बचालो
प्यार के इस कोशिका को
एक नया जीवन दिला दो
इस बिरहन राधिके को
पीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
रास किये  जाते हो

(निहार रंजन, सेंट्रल, १२ मार्च २०१३)

नाभिक =  Nucleus
आतंरिक कक्षा = Core shell
सान्द्र = Concentrated
गंधकाम्ल = Sulfuric acid  ( Besides being an acid, it is also a strong dehydrant).
टीलोमर = A repeat sequence of DNA bases found  at the chromosomal ends. It gets shortened after every cell division. A cell dies when the  telomere gets really short.
कोशिका = cell.

Saturday, March 9, 2013

सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो नदियाँ क्या कहती है!


चलती रहती वह हर क्षण अपने पथ पर
हर तृषित का करती है वो रसमय अधर
पावस शरद की परवाह नहीं करती है वो
उत्तुंग शिखर से च्युत हो आह नहीं करती है वो
बेहैफ धरा पर चाल लिए वो अमलारा
कल-छल-कल-छल बढती जाती उसकी धारा
निरुद्येश्य क्या वो यूँ ही चलती है ?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

हिमगिरि की अप्रतुल सुन्दरता तज बढ़ जाती अकेली
उद्भव से अपने जीवन में पाती है राहें पथरीली
चट्टानों से मिलते जुलते गिरते उठते हिलते
निर्जन जंगल में नाद किये बढ़ते चलते
कांचनार और खार से निःसंकोच करती अभिसार
जलचर थलचर और नभचर को देते प्यार
धरती पर हमसे मिलने आ जाती हैं   
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

वह नहीं मांगती मूल्य प्यास बुझाने की
वो नहीं करती है रार अजसी हो जाने की
ईश्वर अभिदत्त अमलता वो लिए हुए
वर्णों योनि में बिना कोई विभेद किये
जो बटोही आ जाता प्यासा उसके तीर
हरदम हाजिर रहती है वो लिए विपुल नीर
जलधि मेल को अविरत चल बढ़ जाती है
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

सोचो हम तुम जीवन में बिन त्याग किये
निश्छल, निर्लोभी हिय बिन परमार्थ किये
अवरोधों से दुबक, छोटे गलियारों से निकल
बिना पिये जीवन में थोड़ा सा काराजल
सागरमाथा चढने को रहते हम अधीर
बिन त्यग्जल तजे बने जाते है वाग्वीर  
पर नदियाँ क्या सहती है, कुछ कहती है?
सोचो नदियाँ क्या कहती है!

दुर्गम सी अपनी राहें भी हो तो चलते जाओ
और जो मिले पंथ में प्रेम उसे देते जाओ
द्वेष लिए मन में, लिए अथाह स्वार्थ
नाहक न जियो मनुज जीवन अपार्थ
पिया (सागर) मिलन को इकलौता लक्ष्य मान
चलते ही रहना जीवन में करते उत्थान
सन्देश यही देती हमे वहती है
शायद  नदियाँ  यही कहती है!

(निहार रंजन, सेंट्रल, ९ मार्च २०१३)

Sunday, February 17, 2013

कवि का सच

कवि का सच 


लोग कहते हैं 
कविता झूठी है 
कल्पना का सागर है 
जिसका यथार्थ से कुछ वास्ता नहीं

लोग कहते हैं  
कवि कविता की आड़ में अपना भड़ास निकालते हैं
अपनी  ज़िन्दगीके अँधेरे को छदम रूप देकर कविता का नाम देते है 
अपनी असहायता को  झूठे शब्द देकर हुंकार का नाम देते हैं

लोग कहते हैं 
कविता ने  झूठी आस दी है 
उजालों  के स्वप्न दिए है     
दिल को खुश रहने का ख़याल दिया है, पर हकीकत?

लोग कहते हैं 
कवि रसिया है 
कविता के कंधे पर धनुष रख आखेट करता है 
अपनी अतृप्त इच्छाओं को दुनिया के दर्द कहता है 

लोग कहते हैं 
कविता बिन दर्द हो ही नहीं सकती , 
रामायण देखो, "ग़ालिब" का दीवान देखो 
"मजाज़" के टूटे अरमान देखो 

लोग कहते हैं 
कविता में शराब की बातें है 
कविता में चाटुकारिता है 
कविता हारे हुए (bunch of losers) पढ़ते है 


लोग कहते हैं 
कविता बेकार है 
दुनिया में सब कुछ अच्छा है 
बस नजरिये में फर्क की ज़रुरत है 

लेकिन काश!!

कविता सब समझ पाते 
सब यह समझ पाते कि
कवि ह्रदय का विस्तार निस्सीम है 
इसलिए उसमे अपरिमित  दर्द है 

सब यह भी समझ पाते  
जब दिल्ली में असुर नाचते है 
तो कवि ह्रदय नुकीले जूतों  से रौंदा जाता है 
और दर्द की वेदना वैसी ही होती है जैसे किसी स्व का हादसा हो 

हाँ दुनिया अच्छी है 
क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में उजाले है 
आराम है, पैसे है और दुनिया बदलने का झूठा दंभ है 
अब किसी को रोटी नहीं मिलती तो मेरी नींद क्यों जाए 

लेकिन अपनी ज़िन्दगी के उजालों से हट के देखता है कौन 
रंगीनियों की क्षणिकता और श्वेत श्याम के स्थायित्व को देखता है कौन 
न्यूयॉर्क की गलियों में वक्षोभ से औरत की कीमत होते देख दुखता है कौन 
वही कोई "शराबी", "पागल", "हारा हुआ" कवि  

कौन कहता है  दुनिया में दर्द नहीं है 
लेकिन दर्द को देखने की लिए आँखें चाहिए
उनमे ख़ास ज्योति चाहिए 
एक ख़ास जिगर चाहिए 

और वो रौशनी तभी आती है 
जब सब अपने स्वजनों की माया पृथक कर 
अपने प्रियतम के आलिंगन से विमुक्त हो 
उस असहाय को भी देखें जिसका आंत जल रहा है 

वैसी ज़िन्दगी भी देखे 
जिसे समय का चक्र एक पल में लूट लेता है 
और एक पल में चहचहाती ज़िन्दगी में वीराना आ जाता है 
सालों की समेटी ख़ुशी एक पल में काफूर होती है 

लेकिन इसके लिए चाहिए मन, ह्रदय का विस्तार 
दृगों को वही ख़ास ज्योति 
और अपने स्वार्थ से इतर एक दुनिया का एहसास 
जहां घोर अँधेरा पसरा है 

और मैं यह इसलिए कहता हूँ क्योंकि 
ना मुझे मुहब्बत ने ह्रदय चाक किया है 
ना मेरी दुनिया में अँधेरे हैं 
और ना ही शराब का मैं गुलाम हूँ 

फिर भी दिल में  दर्द है 
क्योंकि दर्द जीवन का सच है, स्थायी या अल्पकालिक 
क्योकि "दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त"
क्योंकि ह्रदय कवि का है, आहनी नहीं 

(निहार रंजन, सेंट्रल, १७-२-२०१३ )










Saturday, February 2, 2013

जवाब पत्थर का

पत्थर से गुफ्तगू
पत्थर से मैंने सबब पूछा
क्यों इतने कठोर हो
निष्ठुर हो, निर्दय हो  
खलनायकी के पर्याय हो

कभी किसी के पाँव लगते हो तो ज़ख्म
कभी किसी के सर लगते हो तो ज़ख्म
और उससे भी दिल न भरे तो अंग-भंग
क्या मज़ा है उसमे कुछ बताओ तो?

तुम दूर रहते हो तो सवाल रहते हो
पास तुम्हारे आता हूँ तो मूक रहते हो
तुम्हारे बीच आता हूँ तो पीस डालते हो
तुझपे वार करता हूँ तो चिंगारियाँ देते हो  

आज मेरी चंपा भी कह उठी मुझसे “संग-दिल”
अपनी बदनामी से कभी नफरत नहीं हुई तुम्हे?
काश! लोग तुम्हें माशूका की प्यारी उपमाओं में लाते
उनके घनेरी काकुलों के फुदनों में तुम्हें बाँध देते

उनके आरिज़ों की दहक के मानिंद न होते गुलाब
पत्थर खिल उठते जब खिल उठते उनके शबाब
मिसाल-ऐ-ज़माल भी देते लोग तो तेरे ही नाम से
हो जाता दिल भी शादमाँ तेरे ही नाम से

ये सब सुनकर पत्थर का मौन गया टूट
और मुझे जवाब मिला-
"ताप और दाब से बनी है मेरी ज़िन्दगी
मैं कैसे फूल बरसा दूँ प्यारे!"

निहार रंजन, सेंट्रल, (२-२-२०१३)

सबब = कारण 
संग = पत्थर
काकुल= लम्बे बाल
आरिज़ = गाल
ज़माल = रौशनी
शादमाँ = प्रसन्न, आह्लादित


Sunday, January 20, 2013

पंथ निहारे रखना

पंथ निहारे रखना

छोड़ दो ताने बाने
भूल के राग पुराने
प्रेम सुधा की सरिता
आ जाओ बरसाने

प्रियतम दूर कहाँ हो
किस वन, प्रांतर में  
सौ प्रश्न उमड़ रहे हैं
उद्वेलित मेरे अंतर में

जीवन एक नदी है
जिसमे भँवर हैं आते
जो खुद में समाकर
दूर हमें कर जाते

ये सच है जीवन का  
लघु मिलन दीर्घ विहर है
फिर भी है मन आह्लादित
जब तक गूँजे तेरे स्वर हैं

देखा था जो सपना
वो सपना जीवित है
प्रीत के शीकर पीकर
प्रेम से मन प्लावित है
___________________
....प्रिय पंथ बुहारे रखना
हो देर मगर आऊँगा
वादा जो किया था मैंने  
वो मैं जरूर निभाऊंगा.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३)


Friday, January 4, 2013

जल! तेरी यही नियति है मन


जल! तेरी यही नियति है मन

जीवन पथ कुछ ऐसा ही है
चुभते ही रहेंगे नित्य शूल
हो सत्मार्गी पथिक तो भी
उठ ही जाते हैं स्वर-प्रतिकूल
छोड़ो  उन औरो की बातें
भर्त्सना करेंगे तेरे ही “स्वजन”
जल! तेरी यही नियति है मन

एक मृगतृष्णा है स्वर्णिम-कल
होंगे यही रवि-शशि-वायु-अनल
होंगे वही सब इस मही पर
शार्दूल, हंस,  हिरणी चंचल
हम तुम न रहेंगे ये सच है
कई होंगे जरूर यहाँ रावण  
जल! तेरी यही नियति है मन

हो श्वेत, श्याम, या भूरा
है पशु-प्रवृत्ति सबमे लक्षित
ब्रम्हांड नियम है भक्षण का 
तारों को तारे करते भक्षित
है क्लेश बहुत इस दुनिया में 
हासिल होगा बस सूनापन
जल! तेरी यही नियति है मन

त्रिज्या छोटी है प्रेम की
उसकी सीमा बस अपने तक
ऐसे में शान्ति की अभिलाषा
सीमित ही रहेगी सपने तक
मेरा हो सुधा, तेरा हो गरल
फिर किसे दिखे अश्रुमय आनन
जल! तेरी यही नियति है मन

है प्रेम सत्य, है प्रेम सतत
पर प्रेम खटकता सबके नयन
आलोकित ना हो प्रेम-पंथ
करते रहते उद्यम दुर्जन
आनंद-जलधि है प्रेमी मन
यह  नहीं जानता  “दुर्योधन”
जल! तेरी यही नियति है मन

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१-२०१३)

Tuesday, December 25, 2012

आ सजा लो मुंडमाल


“फूल” थी वो, फूल सी प्यारी
जब कुचली गयी थी वो बेचारी

जीवन में पहली उड़ान लेती वो मगर
तभी किसी ने काट लिए थे उसके पर

हंगामे तब उठे थे चहुँ ओर
कान खुले थे सरकार के सुनकर शोर

कलम की ताकत को तब मैंने जाना था
कलम है तलवार से भारी है, मैंने माना था  

बरसों बीते, और जब सब गया है बदल
पर बलात आत्मा मर्दन क्यों होता हर-पल

क्या गाँव की, क्या नगर की कथा
एक ही दानव ने मचाई है व्यथा

कभी यौन-पिपासा, कभी मर्दानगी का दंभ
क्यों औरत ही पिसती हर बार, होती नंग

क्या भारत, क्या विदेश, किसने समझा उसे समान
कहीं स्वतंत्रता से वंचित, तो कहीं न करे मतदान 

क्यों है आज़ाद देश में अब तक वो शोषित
क्या है जो इन “दानवों” को करता है पोषित

एक प्रश्न करता हूँ तो आते है सौ सवाल
कैसे इन “दानवों”  का है उन्नत भाल

कहाँ है काली, कहाँ है उसकी कटार
क्यों ना अवतरित होकर करती वो संहार  

क्यों कर रही वो देर धरने में रूप विकराल
बहुत असुर हो गए यहाँ, आ सजा लो मुंडमाल  

क्यों कर  सदियों से बल प्रयोग
वस्तु समझ किया है स्त्रियों का भोग
  
बहुत हो गया अब, कब तक रहेगी वह निर्बल
बदल देने होंगे तंत्र, जो बन सके वह सबल

ना बना उसे लाज की, ममता की मिसाल
निकाल उसे परदे से, चलने दो अपनी चाल  

उतार हाथों से चूड़ियाँ, लो भुजाओं में तलवार
“नामर्द” आये सामने तो, कर दो उसे पीठ पार  

ताकि कभी फिर, कोई ना बने “अभागिनी”
फिर ना सहे कोई, जो सह रही है दामिनी    

      (निहार रंजन, सेंट्रल, २५-१२-२०१२)

     फोटो: http://www.linda-goodman.com/ubb/Forum24/HTML/000907-11.html



Saturday, December 15, 2012

सच्चा प्यार


प्यार ही हैं दोनों
एक प्यार जिसमे
दो आँखें मिलती  हैं
दो दिल मिलते हैं, धड़कते हैं
नींद भी लुटती है और चैन भी
जीने मरने की कसमें होती हैं
और प्यार का यह दूसरा  रूप
जिसमे न दिल है, ना जान है
ना वासना है, ना लोभ
ना चुपके से मिलने की चाह
ना वादे, ना धडकते दिल
क्योंकि इस प्यार का केंद्र
दिल में नहीं है

क्योंकि इस प्यार का उद्भव
आँखें मिलाने से नहीं होता
इस प्यार का विस्तार
द्विपक्षी संवाद से नहीं होता
ये प्यार एकपक्षीय है
बिलकुल जूनून की तरह
एक सजीव का निर्जीव से प्यार
एक दृश्य का अदृश्य से प्यार
जिसकी खबरें ना मुंडेर पर कौवा लाता है
ना ही बागों में कोयल की गूँज

बस एक धुन सी रहती है सदैव
जैसे एक चित्रकार को अपनी कृति में
रंग भरने का, जीवन भरने का जूनून
ये भी एक प्रेम है, अपनी भक्ति से 
अपनी कला से, अपनी कूची से, अपने भाव से
जैसे मीरा को अप्राप्य श्याम के लिए
नींद गवाने की, खेलने, छेड़ने की चाह

यह प्यार बहुत अनूठा होता है
क्योंकि इसमें इंसानी प्यार की तरह
ना लोभ है , ना स्वार्थ
ना दंभ है, ना हठ
सच्चे प्यार की अजब दास्ताँ होती है
वो प्यार जिसका केंद्रबिंदु दिल नहीं
इंसान की आत्मा होती है
क्योंकि सच्चे प्यार को चाहिए
स्वार्थहीन, सीमाओं से रहित आकाश 
एक स्वछन्द एहसास
और वो बसता है आत्मा में
क्योंकि आत्मा उन्मुक्त है

कुछ पता नहीं चलता कब, कैसे
सच्चा प्यार हो जाए
किसी ख़याल से, किसी परछाई से
किसी रंग से, किसी हवा से
किसी पत्थर से, किसी मूरत से
किसी लक्ष्य से, किसी ज्ञान से  
घंटे की ध्वनि से, उसकी आवृति से
किसी बिछड़े प्रियतम की आकृति से

(निहार रंजन, सेंट्रल, १५-१२-२०१२)