Sunday, May 17, 2020

भोर सुहानी

एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


एक लम्बी रात का सूनापन
और भोर सुहानी की आशा
कितनी काली वो रातें थी
आली की खाली बातें थी
बहका सा फिरता रहता तब
जब बंद पड़ी थी राहें  सब

मैं भी कितना आवारा  था


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


वो तो जग की रजधानी थी
लेकिन बस एक कहानी थी
अलकों का लम्बा घेरा था
कुछ भी लेकिन ना मेरा था
मेरी रातों  का यौवन था
और मन मेरे बस मधुवन था


मैं घरवाला बंजारा था


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


सबने टोका, ओ! मतवाले
कितने उतरे तुझमे प्याले
नयनाभिराम वो दृश्य नवल
सुध-बुध खो के जिसमे चंचल
मैं डूब-डूब  इतराता था
बस प्रेम सुधा ही पाता था


सब कहते थे, नाकारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


बंधु -बांधव तव मित्र सखा
सबसे कड़वा ही घूँट चखा
उस पार खड़ी बेचारी थी
तन से मन से सब वारी थी
मैं छोड़ उसे कायर होता 
और देख उसे कातर होता


ना और कोई भी  चारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


ना कोई खड़ा था प्रेम के हित
और प्रेमी चारो खाने चित
नर समय-पतित जब होता है
कोई उसके लिए ना रोता है
उस विप्लव सी लाचारी में
दावानल सम दुश्वारी में  


ना यारी थी, न यारा था


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


वो एक नदी, चौड़ी, गहरी
बरसों की वेगमयी लहरी
जाता कैसे, मैं, लेता थाह
उन्मुक्त उर्मि,कलकल प्रवाह 
अभिलाषी मन में तुमुल तान
ठहरूँ या कर लूँ प्रयाण


मिलता ना कूल किनारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


धब्बा गन्दा , प्यारा चंदा 
अपने रब में खोया बंदा 
शीतल प्यारी  जुन्हाई थी 
हिवड़े में पीड़ समाई थी 
विस्तृत वितान था अंतहीन 
सय्याद चतुर, हम भी प्रवीण 


पंछी  ने  पंख  पसारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


ये जो रजनी थी व्यथा-व्याप्त 
होनी थी एक दिन वो समाप्त
रातों का बस इतना प्रसार
मन में भय का हो सतत वार
पर कब तक भोर रहे  छुपकर
जब प्रेम सत्य, हो कर्म प्रखर 


अंतः-रव का ललकारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था

अब लगी अंक विरही-आली
रद-आरिज में लाली-लाली  
सिमटन, सिहरन, प्रमदन, सकुचन 
मधु अर्क भरी शीरीं प्याली 
चितवन की सूनी राह में स्वन 
झन, झनन,झनन, झन, झनन,झनन 
  
अब लौट गया झनकारा है 


एक चंदा है, ध्रुवतारा है 
लगता वो हद से प्यारा है 



(ओंकारनाथ मिश्र , वृन्दावन, १७ मई २०२० )

5 comments:

  1. वाह क्या बात है बहुत ही उम्दा रचना।

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  2. वही तेवर .... वही कलेवर ...
    बहुत दिनों बाद आज आपने कुछ लिखा ... और सच में दुबारा आप ब्लॉग पर आए तो देख कर बहुत अच्छा लगा ... बहुत लाजवाब और खूबसूरत भावपूर्ण बहती हुयी रचना ... आशा है संपर्क बनाये रखेंगे ...

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  3. इस समय जब नभ में चन्द्रमा नहीं और उसके स्थान पर रात्रि के प्रकाश का प्रतिनिधि धु्रव तारा ही विद्यमान है। इस परिस्थिति में आपकी यह कविता जीवन के विविध आयाम यथा अध्यात्म, प्रकृति, दर्शन, मनुष्य मन के प्रेम को और इसमें प्राप्त होते परम जीवन सौंदर्य बोध को श्रेष्ठतम कविता-विधि से प्रस्तुत करती है। अत्यंताद्भुत कविता............अति मनभावन, मधुरिम और जीवन से प्रेम करने को प्रेरित करती लगी। आशा है आप भी बंधु-बांधवों, परिजनों के साथ स्वस्थ और सानंदित होंगे।

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  4. ये कलकल प्रवाह स्वयं में डुबाता हुआ , उतराता हुआ बहाए लिए जा रहा है । किसी भी ओर - छोर से परे । आह !

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  5. बंधु -बांधव तव मित्र सखा
    सबसे कड़वा ही घूँट चखा
    उस पार खड़ी बेचारी थी
    तन से मन से सब वारी थी
    मैं छोड़ उसे कायर होता
    और देख उसे कातर हो,,,,,,,,, बहुत ही शानदार रचना,

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