पिछले कुछ दिनों से सतपुरा के जंगलों में घूम रहा हूँ. प्रकृति के मध्य से सूर्य, चन्द्रमा और मौसम की मादकता पा रहा हूँ. कभी कभी उनकी तस्वीरें भी ले रहा हूँ. आज की कविता उन्हीं तस्वीरों की बानगी है.
ले लिया मौसम ने करवट
व्योम से बादल गए हट
कनक-नभ से विहग बोले
‘तल्प-प्रेमी' उठो झटपट
ले लिया मौसम ने करवट
खिली कोंढ़ी, जगे माली
कुसुम-पूरित हुई डाली
गई पीछे रात काली
वेणी भरने चली आली
श्लेष-वांछित, तप्त-रदपट
ले लिया मौसम ने करवट
रहे कब तक धरती सोती
किसानों ने खेत जोती
क्पोत-क्पोती कब से बैठे
फिर भी क्यों न बात होती
यही पृच्छा मन में उत्कट
ले लिया मौसम ने करवट
जग उठे हैं श्वान सारे
दग्ध, प्यासे, मिलन-प्यारे
आह! उनकी वेदना है
क्यों कोई फिर ताने मारे
वो उठायें हूक
निर्भट!
ले लिया मौसम ने करवट
नीर झहरे, गीत गाये
हरित तृण-तृण मुस्कुराएँ
हो सुहागिन सांझ बेला
भरे मन में लहर लाये
प्राणवन्तिनी! खोल
दो लट
ले लिया मौसम ने करवट
तमनगर प्रक्षीण है अब
निष्तुषित कलु-भाव है सब
भर चुका है सकल अंबर
ज्वाला के ही विविध छब-ढब
ह्रदय-उर्मि छुए तट-तट
ले लिया मौसम ने करवट
हर तरफ ज्यों हास का, ज्यों
लास क्षण
मधु मन में, मधु तन में,
मधु कण-कण
वाह! कितने ठसक से ये बहक
निकली
हरने गावों-नगरों से ये सारे
मन-व्रण
तृषावंतों! पियो
गटगट आज शत-घट
ले लिया मौसम ने करवट
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 02 अक्टूबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteअद्भुत बहुत सुन्दर...... ,इसे पढ़कर सतपुरा के घने जंगल कविता की याद आ गई
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteगहन भाव से पूर्ण कविता। चित्रों से मौसम का स्वरूप प्रकट होता है। अश्विन की यह बेला आजकल रात-दिन आकर्षण का कहर ढा रही है। आपके प्राकृतिक चित्र बहुत सुन्दर हैं विशेषकर खेतों व ढलते सूरल व बादलों के चित्र
ReplyDeleteयह अगस्त चल रहा है। सितंबर आनेवाला है। सितंबर आखिरी में आपने पिछली बार जो चित्र खींचे थे। उनमें से दूसरा और आठवां चित्र आज फिर से बहुत से ध्यान से देखा और देर तक देखता ही रह गया। ऐसे लगा जैसे ये चित्र मुझे अति व्याकुल होकर बुला रहे हैं। ऐसी यात्राएं करते रहें। इस बार यदि दिल्ली की ओर आना होगा तो अवगत अवश्य कराएं। मैं भी यात्रा में साथ हो लूंगा।
Deleteनिश्चय की किसी दिन चलेंगे साथ में. मुझे भी पर्वतों और प्रकृति में बीच जाकर बहुत अच्छा लगता है.
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ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (02.10.2015) को "दूसरों की खुशी में खुश होना "(चर्चा अंक-2116) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
बहुत सुन्दर और प्रवाहमयी कविता। तस्वीरें भी ख़ूब हैं।
ReplyDeleteरमणीय प्रकृति की गोद में जो सुकून है संसार के कोलाहल में कहाँ ?
ReplyDeleteसुन्दर भावभरी कविता और उसके अनुरूप चित्र दोनों एकदूसरे के पूरक है !
बहुत सुन्दर चित्रण निहार जी !
क्पोत-क्पोती कब से बैठे
ReplyDeleteफिर भी क्यों न बात होती
यही पृच्छा मन में उत्कट
क्या पता कहीं दोनों में मनमुटाव हो गया हो :)
सुन्दर लगी रचना !
आपका पूरा मन मिजाज इस मौसम में लोटपोट हो गया है. ये सबको नसीब कहाँ होता है.. तस्वीरों का उल्लास तो देखते बन रहा है.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर गहन भाव अभिव्यक्ति है। काश हम इस मशीनी युग या समाज को छोड़कर वापस उस प्रकर्ति की गोद में शरण ले पाते तो शायद आज जीवन कुछ और ही होता।
ReplyDeleteसुन्दर चित्र ... और उनपे चलती लेखनी तो चार चाँद लगा रही है ...
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