Friday, September 11, 2015

निशागीत

मन उद्भ्रांत है, सब शांत है
रात का एकांत है

हरसिंगार का पेड़ है
कायर है चाँद
सुप्त है, लुप्त है
किसी कारण से गुप्त है
रात का एकांत है
घना तिमिर है
सब शांत है
कायर है चाँद
किसी और चाहना में,
वासना में असीर
अनिश्चित, अधीर
रात के एकांत में
गाता हूँ निशागीत

सोचता हूँ  अक्सर
मेरे सर पर है जो ऋण
कब हो सकूँगा उससे उऋण
मैं अपनी वासना का गुलाम
कब लौटा पाऊंगा अपने स्वेद का बूँद मात्र
अपनी माँ के लिए,
अपनी मिटटी के लिए
कब हो पाऊंगा मैं स्वामी अपनी वासना का
अपनी झोपड़ी के धुंधले प्रकाश में
रात के एकांत में

मैं अक्सर सोचता हूँ
रात के एकांत में
अपने बनाये चक्रव्यूह में मनुष्य
एक छद्म विभासा, एक कप्लना-कुवेल की आभा
मन में स्थापित किये
रात के एकांत में
चलता हुआ आ जाता कुम्भिपाकी-कीच में
रति-रंजित, उन्मादित
विस्मृत कर जीवन के वे क्षण
जो ऋण के, विश्वास के थे
और आ ठहरता है
अपने मन-मदन की तलाश में
पिया के पास में, पाश में
कहते हुए मैं कृतहस्त
मैं परिस्थिति विवश
मैं आधुनिक
मैं क्षन्तव्य
गढ़ता हूँ जीवन की नयी परिभाषाएं
और सारा ऋण पीकर
चाहता हूँ दंड न्यून
चाहता हूँ हो स्वयं पर
सदा आलोकित स्यून
रात के एकांत में

(ओंकारनाथ मिश्र, खजुराहो, ५ सितम्बर २०१५ )

7 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति....

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  2. निज मन की निज प्रवृत्तियों व दुष्‍प्रवृत्तियों का सुन्‍दर वर्णन।

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति ....

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  4. निशा गीत मन के उदगार एक अच्छी प्रस्तुति

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  5. खुद के बनाए चक्रव्यूह में फंसे रहना चाहता है इंसान ... या फंसे रहता है इंसान ...
    मन की मनःस्थिति का गहरा विवेचन ...

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  6. सुन्दर भावाभिव्यक्ति

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  7. मैं आधुनिक
    मैं क्षन्तव्य
    गढ़ता हूँ जीवन की नयी परिभाषाएं.......
    निशागीत के एकांत में अपने अंदर अपनी खोज.…

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