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Saturday, July 13, 2013

पनडुब्बी

इतनी भी प्यास नहीं,
इतना भी स्वार्थ नहीं
जहाँ देखा मधु-घट  
वही पर  ढल गए

ठहरा नहीं तितली जैसा
जी भर पराग चखा  
फिर देख नया गुल
उसी रुख चल दिए

वक़्त देगा गवाही
जब उगेंगे पौधे
कोई ना कहना मुझे
काम बना, निकल गए 

सोचो उसपर क्या गुज़रे
जिसने सब वार दिया
मेरे हाथ 'अमृत' यहाँ
और वो हालाहल पिए

वो जो कब से बैठी है
आँचल में दीप लिए
लौ नहीं ऐसे दीयों की
आजतक निष्फल गये  

उसकी आँखें यूँ ही सदा
भरी हो रौशनी  से  
जिसने अपनी आँखों में
रख मुझे हर पल जिए


(निहार रंजन, सेंट्रल,  ७ जुलाई २०१३) 

Wednesday, April 10, 2013

गामवाली


(कोसी के धार-कछार के मध्य गामवाली की धरती)

 इब्तिदा चचा ग़ालिब के इस शेर से -

लिखता है 'असद' सोज़िशे दिल से सुखन-ऐ-गर्म  
ता रख ना सके कोई मेरे हर्फ़ पर अंगुश्त 

[अपने ह्रदय ताप से 'असद' इतने दहकते शेर लिखता है  
ताकि उन शब्दों पर कोई उंगुलियां न उठा सके ]

गामवाली


वो मेरे साथ, हाथों में हाथ लिए
मंद अलसाये डग भरते  
शानों पर लट बिखरा
होठों पर नीम-मुस्की लिए
सरेराह नहीं चल सकती

वो मेरे साथ ‘हाई-पॉइंट’ जाकर
अपने हाथों में थ्री वाइज मैन लेकर  
मेरे हाथों में रेड हेडेड स्ल्ट्स देकर  
एक ही घूँट में अपने-मेरे जीवन-विष का
शमन नहीं कर सकती

ना ही मेरे साथ ‘लकी लिप्स’ पर सारी रात थिरक 
‘हाई पॉइंट’ के बंद  होने वक़्त 
मदालसी आँखें और उत्ताप श्वास के साथ
कानों में शहद भरी ध्वनि लिए 
प्रणय निमंत्रण दे सकती है 
और इनकार पाकर, निर्विण्ण मन से   
मुझे समलैंगिक कह सकती है

उसे मधु-प्लुत होने की इतनी परवाह नहीं
कि अपने बच्चे को छाती से आहार ना दे सके
फिर दो साल बाद तलाक देकर
उसे पिता के पास धकेल,
कीमती कार और तलाक के पैसे लेकर
इस तरह दूर हो जाए
कि १९ साल तक याद ना करे  (शायद आजीवन!)

उसे इस तरह उन्मुक्तता की चाह भी नहीं
कि पैंसठ बरस की उम्र में सिलिकॉनी वक्षों के दम पर
कोई मेनका बन, कोई घृताची बन
किसी विश्वकर्मा को ‘पीड़ित’ करे
बहामास  जाने वाली किसी ‘क्रूज’ पर
‘वायग्रा’ उन्मादित पुरुष के साथ
परिरंभ करे, केलि-कुलेल करे

क्योंकि वो गामवाली है!

गामवाली,
यानि एक भारतीय नारी
जनकसुता सीता की मिटटी पर जन्मी
मिथिला की बेटी है
त्याग और अदम्य जीवटता की प्रतीक है

ये गामवाली बचपन से धर्मभीरु है
इसने ब्रम्हवैवर्तपुराण के आख्यान सुने है
कुंभीपाक के सजीव से चित्रों के दर्शन किये है  
धर्म और अधर्म का ज्ञान पाया है
विद्यापति के गीत गाये हैं
और पुष्पवती होते ही
स्वामी के बारे में सोचा है
उसे पाया है, उसे पूजा है

यही उसके जीवन का आदि और अंत है
कोई नारीवाद नहीं है उसमे
किसी बराबरी की चाह नहीं है उसमे
उसमे बस त्याग है,
आपादमस्तक दुकूल में छिपा
सलज्ज चेहरा है, पुरनूर आँखें है  
और यावज्जीवन की अभिलाषा
माँ बनकर, बहन बनकर, दादी बनकर
नानी बनकर, भाभी बनकर
कि उसके पास जो कुछ है वह बाँट देना है  

सच्चरित्रता का पालन किये
बिना झूठे वादे किये,
बिना झूठे बोल बोले
बिना झूठे आस दिए,
बिना अपनी गलत तस्वीर पेश किये
एक बंद कमरे में, ढिबरी की रौशनी में
रात भर अन्धकार पीती है
सुबह अपने देह पर धंसे काँटों को ढँककर
मुझसे मुस्कुराकर बात करती है
कोई नहीं जानता कितने कांटे हैं उसकी देह में
दर्द और ताप का शमन कोई सीखे तो उस गामवाली से

इसलिए प्रसूता होकर भी
मुस्कुराते चेहरे के साथ
खेत में वो काम करती है
और अपने छोटे बच्चे को,
दांत का दंश लगने तक,
छाती की आखिरी बूँद तक पिलाती है
और हो सके तो किसी भूखे बच्चे को,
अपने शीरखोर बच्चे से माफ़ी मांग,
छाती से लगा लेती है
उसे अपने पुष्ट छातियों की परवाह नहीं है.

उस गामवाली का देह
सुख के लिए नहीं है
उसकी संतानें हैं,
पति है, समाज है
रामायण है, गीता है
सुख चाहती वो इन्ही से,
सुख मांगती वो इन्ही से
इसलिए संयोगिनी या वियोगिनी होना
उसके लिए सम हैं
वह वासना के व्याल-पाश में 
लिपटकर रह सकती है,
उसके विषदंत तोड़ सकती है
उससे निकल सकती है
लेकिन मुझसे नहीं कह सकती
“वांट टू गो फॉर ‘डेजर्ट’ “

इतना सारा धन, प्यास, और झूठ
मानवीय संवेदनाएं ना छीन ले उससे
कुल्या होना न छीन ले उससे
धन्या से धृष्टा ना बना दे उसे
स्वकीया से परकीया ना बना दे उसे
इसीलिए वो अर्थ और काम को ताक पर रख
पैसठ बरस की उम्र में
धर्म और मोक्ष ढूँढती है
उसकी पहचान उसके देह से नहीं
उसके त्याग से है

इसी वजह से गामवाली पर
सरस गीत लिख पाना असंभव है  
उसपर कविता लिख पाना मुश्किल है  
त्याग की कवितायें बाज़ार में नहीं बिकती
त्याग से अवतंसित स्त्रियों का ये बाज़ार नहीं
बाज़ार में बिकती है रम्भा, मेनका
मदहोश करती अर्धनग्न सैंड्रा और रेबेका
पर मेरी रचनाओं में गामवाली जिंदा रहेगी
आखिर दूध का क़र्ज़ कौन उतार पाया है.

 (निहार रंजन, सेंट्रल, ८ अप्रैल २०१३)

(समर्पित उस गामवाली के नाम जिसने दूधपीबा वयस में एक दिन मुझे भूखा देखकर अपनी छाती से लगा लिया था. आभार उन तीन मित्रों का जिनके अनुभव इस रचना में हैं) 
 
*
गामवाली - गाँववाली 
हाई पॉइंट – एक मदिरालय का नाम
थ्री वाइज मैन – एक अल्कोहलीय पेय का नाम
रेड हेडेड स्ल्ट्स - एक अल्कोहलीय पेय का नाम
लकी लिप्स - क्लिफ रिचर्ड का मशहूर गीत
क्रूज – सैर सपाटे के लिए जाने वाला पनिया जहाज 

Saturday, February 23, 2013

ज़िन्दगी के रंग

ज़िन्दगी के रंग 

गाँव के अन्दर, शहर के बीच और देश के बाहर 
कभी ठेस खाकर कभी प्यार पाकर 
ज़िन्दगी की राह पर चलते सँभलते 
कभी लड़खड़ाते , कभी ठीक चलते 
ज़िन्दगी ने जीवन के कई रंग देखने को दिए 
ज़िन्दगी ने बहुत कुछ सीखने को दिए 

घूंघट गिरी थी, वो उठ गयी फिर हट गयी 
लीपा सिन्दूर हटा और फिर ज़ुल्फ़ हट गए 
माँ का दूध हटा , बोतलों ने जगह ली और फोर्मुले आये 
रिश्तों की परिभाषाएं बदली, फूल हावी हो गए ज़िन्दगी में 
अस्तपताल में दम खींचते बाप को एक गुच्छा फूल काफी था सुधि लेने को 
और मैं ठेठ गंवार!  हमने तो बस फूलों को तोडना जाना है 

ना  शादी की रस्में, न उनका प्रयोजन 
कोई जन्म ले  तो ले,  भगवान तो देख ही  लेंगे उसे 
और ज़िन्दगी की रफ़्तार ऐसी तेज़ 
कि ज़िन्दगी दौड़ते-दौड़ते बीच में ही गुम  हो गयी कहीं 
पैकेट  में खाना, एक हाथ में पेय और दूसरा  हाथ स्टीयरिंग पर 
१०० किलोमीटर की रफ़्तार में दौडती ज़िन्दगी 
और तभी कौंध जाता है यादों में  चाँदनी चौक  का वो चाटवाला 
शाहजहाँ रोड का वो तिवारी पान भण्डार 
और खान मार्किट में  बरिस्ता की कॉफ़ी 
परखनलियों में रसायनों का बदलता रंग 
यार दोस्तों का मजमा और बेफिक्री के दिन 
और उससे भी पीछे धान के वो हरे पीले खेत
बैलों के गले की घंटी का बजता वो मधुर संगीत 

पर रफ़्तार की ज़िन्दगी ने ज़िम्मेदारी दी
रफ़्तार की ज़िन्दगी ने आत्मविश्वास दिया 
ज़िन्दगी को उन्मुक्त होकर बहते रहने 
प्यास हरते रहने की तालीम 
कोई ज़िन्दगी पूरी अच्छी नहीं,
कोई ज़िन्दगी बिलकुल बुरी नहीं  
ज़िन्दगी की प्यास तो कभी बुझती नहीं 
ज़िन्दगी अच्छा या बुरा बनाना तो अपने हाथ में है 
धीमे चलकर संतुलन बनाना आसान है 
पर रफ़्तार  में संतुलन बना के चलना एक सीख 

पर जो छूट गया बहुत पीछे वो है  मेरा गाँव
उसकी अलमस्त हवा, रेडियो पर बजता संगीत 
आटे के  मिल की हर शाम वो  पुक-पुक 
और शाम को लौटते बैलों का गले मिला कर चलना  
 स्कूल से लौटने के वक़्त गली के मुहाने पर खड़ी मेरी  माँ 
और हुरदंग मचाते लड़कपन के साथी 
लालटेन की रौशनी में  कीट-पतंगों के साथ ज्ञान अर्जन की जंग
कैलकुलस की  छान बीन में बावन पुस्तिकाओं के रंगे पन्ने 
और अपने पतंगों के लिए  हाथ से मांझा किये धागे 
जीते पूरे पांच सौ कंचे 

और अब वही गाँव की मिटटी, 
जिस का कण-कण मेरे रुधिर होकर बहता है, 
वापस लौट आने को कहती  है
और सेंट्रल साइंस लाइब्रेरी के बाहर का चायवाला
२/३ के लिए पूछता है बार बार 
पर कोसी नदी की घाट से दूर कूपर नदी की घाट बैठ 
मैं कविता लिखता जा रहा हूँ 
मैं कवि  बन गया हूँ!

(निहार रंजन, सेंट्रल, २३ फ़रवरी २०१३  )

Sunday, November 11, 2012

माँ से दूर



फैला के अपना दामन ड्योढ़ी के मुहाने पर
बैठ जाती है हर रोज़ मेरे आमद की आस लिए
अपने तनय की पदचाप सुनने कहती हवाओं से
जल्दी पश्चिम से आ जाओ खबर कोई ख़ास लिए
हवाओं से ही चुम्बन दे जाती है मुझे
माँ बुलाती है मुझे 

स्मृति में समायी शैशव की हर छोटी बातें
वो कुल्फी वाला, और दो चवन्नी की मिन्नतें   
अब कोई नहीं कहता, मुझे दो संतरे की यह फाँक
अब कोई नहीं कहता, कमीज़ की बटन दो तुम टांक
चिढ की बातें तब की, अब रुलाती है उसे
माँ बुलाती है मुझे    

यह जगत विस्तीर्ण, ये नभ ये तारे
नहीं मेरी दुनिया, जिसमे विचरते सारे
जो मेरी संसृति है तुझमे, आदि और अंत
तुझसे बिछड़ हो गया हूँ पुष्प बिन मरंद
तुमसे सानिध्य की चिंता, है सताती मुझे
माँ बुलाती है है मुझे

(निहार रंजन, सेंट्रल, ०९-११-२०१२ )

Sunday, August 5, 2012

मिटटी मेरी पुकारे


कितने बीते मनभावन सावन
कितनी जली होलिका, रावण
पर हाय  तपस्या में हर क्षण
विकल प्रतिपल अकुलाता मन
जीता  बस  यादों के सहारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे


जीवन की आपाधापी में
कैसे रखूँ खुद को हर्षित
कुसुम प्राप्ति की अभिलाषा में
तन अर्पित , जीवन अर्पित
कब तक अब यूँ मन मारें 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

कोसी धारा, मिथिला की धरा
जिस पर मेरा शैशव गुजरा
मिले राह में दुःख-सुख
बदला जीवन में हर कुछ
पर उस धरा के हम आज भी दुलारे
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

जब मन विचलित हो जाता है
मिटटी की याद सताती है
तज देता  प्राण जब तन को
बस मिटटी ही अपनाती है
अब छोड़ दुनिया के झंझट सारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

(निहार रंजन ५-५-२०१२)