Monday, August 31, 2015

प्यास

मैंने उस छोर पर देखा था
विशाल जलराशि
और पास आकर देखा तो सब मृगजल था
सब रेगिस्तान था
मकानों में लोग थे, हवस और शान्ति थी
वातायन था, झूठ था, जीवन था
लेकिन मेरा दम घुट रहा था
और कुछ लोगों से मुझसे कह दिया था
“माँ रेवा! तेरा पानी निर्मल’’
मैं भागता नर्मदा के पास चला आया
दुर्गावती की निशानियाँ धूल बन रही थी
फिर पानी का गिलास उठाकर 
ज्ञात हुआ इसमें जहर है
मैं यहाँ भी प्यासा रह गया
उस छोर पर पानी बिन प्यास
इस छोर  पर पानी संग प्यास
और जीवन दो प्रेयसियों के प्यास में
सद्क्षण डूबा रहता हैं
वहां जाता हूँ तो इसकी याद आती है
यहाँ आता तो उसकी विरह में डूब जाता हूँ
प्रेम सच में ‘बुरी चीज’ है
इसमें आग है, प्यास है, पानी है
जोश है, रवानी है
शूल है, कटार है
और क्या-क्या हथियार है
इसमें डूबकर भी रहा नहीं जाता
और डूबे बिना भी रहा नहीं जाता.
यह जीवन इसी के संग
एक मटकती हुई तारका की तरह
चलती जाती है, चलती जाती है
और हम और आप बस देखते जाते हैं


ओंकारनाथ मिश्र, जबलपुर, २४ अगस्त २०१५)