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Friday, March 15, 2013

प्यार की वैज्ञानिक कविता

प्यार की वैज्ञानिक कविता
स्मृति के चुम्बक पर
बारहा लौट आते हो
लौह दिल के मालिक
यास दिए जाते हो

मन नाभिक के पास   
इलेक्ट्रान बने घूमते हो
आतंरिक कक्षा में बने
ना समीप ना दूर होते हो
क्यों मेरे ह्रदय कक्ष में
असीर हुए जाते हो
लौह दिल के मालिक
त्रास दिए जाते हो

अम्ल दग्ध मैं हुई हूँ
क्षार क्षरित मैं जियी हूँ
लवण की है चाह मुझको
लावण्यता समेटी खड़ी हूँ
मन में सान्द्र गंधकाम्ली
तासीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
प्यास दिए जाते हो

कब सुनोगे बाबूजी! संभालो
जरा  प्रेम-टीलोमर बचालो
प्यार के इस कोशिका को
एक नया जीवन दिला दो
इस बिरहन राधिके को
पीर दिए जाते हो
लौह दिल के मालिक
रास किये  जाते हो

(निहार रंजन, सेंट्रल, १२ मार्च २०१३)

नाभिक =  Nucleus
आतंरिक कक्षा = Core shell
सान्द्र = Concentrated
गंधकाम्ल = Sulfuric acid  ( Besides being an acid, it is also a strong dehydrant).
टीलोमर = A repeat sequence of DNA bases found  at the chromosomal ends. It gets shortened after every cell division. A cell dies when the  telomere gets really short.
कोशिका = cell.

Sunday, January 20, 2013

पंथ निहारे रखना

पंथ निहारे रखना

छोड़ दो ताने बाने
भूल के राग पुराने
प्रेम सुधा की सरिता
आ जाओ बरसाने

प्रियतम दूर कहाँ हो
किस वन, प्रांतर में  
सौ प्रश्न उमड़ रहे हैं
उद्वेलित मेरे अंतर में

जीवन एक नदी है
जिसमे भँवर हैं आते
जो खुद में समाकर
दूर हमें कर जाते

ये सच है जीवन का  
लघु मिलन दीर्घ विहर है
फिर भी है मन आह्लादित
जब तक गूँजे तेरे स्वर हैं

देखा था जो सपना
वो सपना जीवित है
प्रीत के शीकर पीकर
प्रेम से मन प्लावित है
___________________
....प्रिय पंथ बुहारे रखना
हो देर मगर आऊँगा
वादा जो किया था मैंने  
वो मैं जरूर निभाऊंगा.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३)


Saturday, December 15, 2012

सच्चा प्यार


प्यार ही हैं दोनों
एक प्यार जिसमे
दो आँखें मिलती  हैं
दो दिल मिलते हैं, धड़कते हैं
नींद भी लुटती है और चैन भी
जीने मरने की कसमें होती हैं
और प्यार का यह दूसरा  रूप
जिसमे न दिल है, ना जान है
ना वासना है, ना लोभ
ना चुपके से मिलने की चाह
ना वादे, ना धडकते दिल
क्योंकि इस प्यार का केंद्र
दिल में नहीं है

क्योंकि इस प्यार का उद्भव
आँखें मिलाने से नहीं होता
इस प्यार का विस्तार
द्विपक्षी संवाद से नहीं होता
ये प्यार एकपक्षीय है
बिलकुल जूनून की तरह
एक सजीव का निर्जीव से प्यार
एक दृश्य का अदृश्य से प्यार
जिसकी खबरें ना मुंडेर पर कौवा लाता है
ना ही बागों में कोयल की गूँज

बस एक धुन सी रहती है सदैव
जैसे एक चित्रकार को अपनी कृति में
रंग भरने का, जीवन भरने का जूनून
ये भी एक प्रेम है, अपनी भक्ति से 
अपनी कला से, अपनी कूची से, अपने भाव से
जैसे मीरा को अप्राप्य श्याम के लिए
नींद गवाने की, खेलने, छेड़ने की चाह

यह प्यार बहुत अनूठा होता है
क्योंकि इसमें इंसानी प्यार की तरह
ना लोभ है , ना स्वार्थ
ना दंभ है, ना हठ
सच्चे प्यार की अजब दास्ताँ होती है
वो प्यार जिसका केंद्रबिंदु दिल नहीं
इंसान की आत्मा होती है
क्योंकि सच्चे प्यार को चाहिए
स्वार्थहीन, सीमाओं से रहित आकाश 
एक स्वछन्द एहसास
और वो बसता है आत्मा में
क्योंकि आत्मा उन्मुक्त है

कुछ पता नहीं चलता कब, कैसे
सच्चा प्यार हो जाए
किसी ख़याल से, किसी परछाई से
किसी रंग से, किसी हवा से
किसी पत्थर से, किसी मूरत से
किसी लक्ष्य से, किसी ज्ञान से  
घंटे की ध्वनि से, उसकी आवृति से
किसी बिछड़े प्रियतम की आकृति से

(निहार रंजन, सेंट्रल, १५-१२-२०१२)

Saturday, December 8, 2012

फिर हो मिलन मधुमास में



फिर हो मिलन मधुमास में

चहुँ ओर कुसुमित यह धरा
कण-कण है सुरभित रस भरा
क्यों जलो तुम भी विरह की आग में
क्यों न कलियाँ और खिलें इस बाग़ में
मैं  ठहरा कब से आकुल, है गगन यह साक्षी
किस मधु में है मद इतना, जो तुझमे मधुराक्षी
दो मिला साँसों को मेरी आज अपनी साँस में 
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

यूथिका के रस में डूबी ये हवाएं मदभरी
हो शीतल सही पर अनल-सम  लग रही
विटप बैठी कोयली छेड़कर यह मधुर तान  
ह्रदय-जलधि के मध्य में उठाती है तूफ़ान
है पूरित यहाँ कब से, हर सुमन के कोष-मरंद
देखूं छवि तुम्हारी अम्लान, करें शुरू प्रेम-द्वन्द
फैलाकर अपनी बाँहें बाँध लो तुम फाँस में
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

ये दूरियां कब तक प्रियवर, क्यों रहे तृषित प्राण
क्यों ना गाओ प्रेमगान और बांटो मधुर मुसक्यान
इस वसुधा पर प्रेम ही ला सकती है वितामस
प्रेम ही वो ज्योत है जो मिटा सके अमावस
हो चुकी है सांझ प्रियतम झींगुरों की सुन तुमुल
आ लुटा रसधार सारी जो समाये हो विपुल
दो वचन चिर-मिलन का आदि, अंत, विनाश में
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

(निहार रंजन, सेंट्रल, ८-१२-२०१२)



फोटो: यह चित्र मित्र डॉ मयंक मयूख साहब ने  न्यू मेक्सिको के उद्यान में कुछ दिन पहले लिया था. यही चित्र इस कविता का मौजू भी है और कविता की आत्मा भी. यह कविता मित्र मयंक के नाम करता हूँ.  
http://www.facebook.com/photo.php?fbid=10101379587252982&set=a.10101370240478992.2935147.10132655&type=3&theater
http://www.facebook.com/photo.php?fbid=10101381732483922&set=a.10101370240478992.2935147.10132655&type=3&theater

Monday, December 3, 2012

आतिश-ओ-गुल



ये तो मैंने माना, ज़िन्दगी एक सज़ा है
पर कौन जानता है, इससे बेहतर क़ज़ा है

ये परवाने जानते हैं, या जानता है आशिक
कि आग में डूबने का, अपना एक मज़ा है

नश्तर के ज़ख्म हो तो, हो जाता है दुरुस्त
पर हाय ज़ख्म-ए-दिल की, अब तक नहीं दवा है 

काँटों से कब तक खेलूँ, हो चुके हैं हाथ छलनी 
कागज़ का भी चलेगा, दो कुछ भी जो फूल सा है 

दरिया में फैला ज़हर, और समंदर ठहरा खारा
इस तश्नालब के खातिर, रह गया बस मयकदा है
   
अब कैसे उठेगा धुआँ, अब कैसे उठेंगी लपटें
ना बची है आग, ना भड़काने को हवा है

उनको ही मौत मिलती, जो खुद ही मर रहे हैं
ऐसे में कैसे कह दूँ, इस दुनिया में खुदा है

लगता है जैसे सर से, उतरा है सारा बोझ
इस माथे को जब से, माँ ने मेरी छुआ है

(निहार रंजन, सेंट्रल, १८-११-२०१२)

क़ज़ा = मौत
दुरुस्त = ठीक
नश्तर = तीर
तश्नालब = प्यासे होंठ/प्यासा 
मयकदा = शराबखाना 

Saturday, November 24, 2012

विरहगान


बैरी रैन काटी नहीं जाय ,एक अजीब उलझन सी लागे
मैं तरसूँ रह-रह आस तोहारे, निश सारी डरन सी लागे

बाग़ ना सोहे मोहे बलमा ,बिन रंग लागे सारी बगिया
मैं बिरहन तड़पूँ तोहे पाने, हिय मोर जलन सी लागे

किसे पीर कहूँ मन माही, कोई अपना सा नहीं लागे
प्रीत की बातें हलक ना उतरे, दुनिया बंधन सी लागे

बादल जब से घिर आयो है, मोरी तपिश और बढ़ायो है 
झड़ झड़ गिरती इन बूँदों से, मोहे आज दहन सी लागे

भाये ना मुझको जूही वेणी, भाये ना मुझको चूड़ी कंगना
सौ सुख पा के रहूँ अधूरी,  कछु नहीं सजन सी लागे

बैठी हूँ आस तुम्हारी लिए, जब चाहो आ जाओ मिलने
जब तक तुम रहते मेरे मन में, धरती उपवन सी लागे

हाँ देर से आती है लेकिन, मन का विषाद उतरे गहरी
पसरे विष फिर उर अंतर में, ज्यों सांप डसन सी लागे

मैं ना भजति ईश्वर को, जो तुम ही  मेरे मन बसते
रटती रहती नित तोर नाम, मुझे वही भजन सी लागे

(निहार रंजन २७-९ २०१२)

Tuesday, November 20, 2012

अनबुझ प्यास



मैं प्यासा बैठा रहा
बरगद के नीचे 
तुम्हारे  इंतज़ार में

हवा आयी, और जुगनुओं का झुण्ड
इस विभावरी रात में सोचा था
तुम्हे आते देखूंगा, तुम्हारी हर डग को  
तुम्हारे पायल की हर रुनक झुनक सुनूंगा
किसी विस्मय की आशा नहीं थी
एक प्यास थी, प्यास होठों की नहीं
वो प्यास जो आत्मा में जगती है
आत्मा में बसती है, आत्मा में बुझती है

रात बढती गयी,
चाँदनी और शीतल
विभावरीश और तेजोमय  
निशाचर पहर का वक़्त आ चुका था
तुम्हारी आने की आस अब भी आस ही थी
डर भी ... उस पापी झिमला मल्लाह का .

सुबह का वक़्त होने को आया है
पर अब भी वही आस, अब भी वही प्यास
होठों की प्यास बुझ जाए शायद
पूरी चार बूँदें दिख रही हैं पत्ते पर
दो ओस की और दो नेह की
पर आत्मा ...........?

(निहार रंजन, सेंट्रल, १९-११-२०१२ )

Sunday, November 11, 2012

माँ से दूर



फैला के अपना दामन ड्योढ़ी के मुहाने पर
बैठ जाती है हर रोज़ मेरे आमद की आस लिए
अपने तनय की पदचाप सुनने कहती हवाओं से
जल्दी पश्चिम से आ जाओ खबर कोई ख़ास लिए
हवाओं से ही चुम्बन दे जाती है मुझे
माँ बुलाती है मुझे 

स्मृति में समायी शैशव की हर छोटी बातें
वो कुल्फी वाला, और दो चवन्नी की मिन्नतें   
अब कोई नहीं कहता, मुझे दो संतरे की यह फाँक
अब कोई नहीं कहता, कमीज़ की बटन दो तुम टांक
चिढ की बातें तब की, अब रुलाती है उसे
माँ बुलाती है मुझे    

यह जगत विस्तीर्ण, ये नभ ये तारे
नहीं मेरी दुनिया, जिसमे विचरते सारे
जो मेरी संसृति है तुझमे, आदि और अंत
तुझसे बिछड़ हो गया हूँ पुष्प बिन मरंद
तुमसे सानिध्य की चिंता, है सताती मुझे
माँ बुलाती है है मुझे

(निहार रंजन, सेंट्रल, ०९-११-२०१२ )

Wednesday, August 29, 2012


ज़मीन ज़ुमाद, ना ज़ुमाद वक्त

वही फैला आकाश, वही चाँद, वही टिमकते तारे हैं
अब भी हीर है, राँझे हैं, और जमाने की दीवारें है

कही खापवाले, कही पिस्तौलवाले, कही त्रिशूलवाले
हर तरफ फिरती मेरी तलाश में प्यासी तलवारें हैं

मुद्दत से बदनाम हुए है जो चले है राह-ए-इश्क
ज़माने ने किये अक्सर गर्दिश में उनके सितारे हैं

दूर तक नज़र आते है बस अंधेरों के घने डेरे
पतझड़ तो आ जाता है, बस आती नहीं बहारें हैं

मैं क्यों  भागता फिरूं ज़माने की नज़रों से दूर
बस इसलिए कि मुहब्बत में अपना दिल हारे हैं

(निहार रंजन २९-८-२०१२)