तंत्र के तंग, गंदे रास्तों
से खीझाये
असंख्य उद्दांत स्वरों को
स्वयं में समाये
यहाँ-वहाँ, आग लगे शब्दों
की
भादो जैसी बरसात कर सकता
हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं
काले मोटे चश्मे से
एक बुद्धिजीवी सा झाँककर
यहाँ की सड़न, वहाँ की गलन का
पूरे माहौल के दमघोंटू घुटन
का
सजीव चित्र दिखा सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं
विकट समस्याओं की
लम्बी फेहरिस्त बना सकता
हूँ
उससे अगली सुबह तक निकलने
की
सैकड़ों युक्तियाँ सुझा सकता
हूँ
और मिनट भर में अपनी जीभ से
आइसक्रीम गला सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं
क्योंकि मुझे पता है
युक्तियाँ सुझाना आसान है
लम्बी फेहरिस्त बनाना आसान
है
या न्यूज चैनल के किसी सत्र
में
अ-सांत वितंडा और भी आसान
है
लेकिन उन्ही ‘गन्दी गलियों’
को
वापस लौट कर, साफ़ करना
बहुत चुनौती भरा अभियान है
क्योंकि साफ़ करते करते
बहते पसीने के साथ फिसल
जाएगा
मेरा मोटा काला बुद्धिजीवी
चश्मा
जिसे ढूँढते-ढूँढते कीचड़ से
लथ-पथ हो
खो जायेगी मेरी बुद्धिजीवी
पहचान
नाहक मुश्किल में होंगे
मेरे प्राण
...नहीं, नहीं.....
मैं बस आदर्श भाषण कर सकता
हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं
यही कर सकता हूँ क्योंकि
राजनीति गन्दी है बहुत
और उसे साफ़ करने का
साहस नहीं है मुझमे
अपनी सुरक्षित नौकरी छोड़कर
अपना सुरक्षित भविष्य छोड़कर
प्रगतिशील बुद्धिजीवी की
पहचान छोड़कर
लौट जाऊं प्रक्षालन के
महाभियान में
..नहीं, नहीं .....
क्योंकि मैं कोई कृष्ण नहीं
जो
पूतना के पृथुल जांघों पर जा
उसका विषघट उसी में उड़ेल
दूं
..नहीं, नहीं .....
ऐसा बलिदान नहीं कर सकता
हूँ
बस युक्तियाँ सुझा सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं
मुझे मत सुनाओ त्याग की
कहानियाँ
या मेरे लिए सब कुछ लुटा
चुकी
मेरी ही जननी का हाल
कह दो उसे, मान ले मुझे मृत
क्योंकि उजालों के इन राहों
से
वापस तंग गलियों में
नहीं लौट सकता मैं
मुद्रा के सेज पर पड़ा
क्रोएशिया से कोलोम्बिया तक
की
माधवी-लताओं का सुखद आलिंगन
नहीं छोड़ सकता मैं
पर जब-तब, इधर-उधर
राष्ट्र-क्रांति की बातें
जरूर कर सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं
सच मानो! जरूर कर सकता हूँ मैं
(निहार रंजन, सेंट्रल, २०
अक्टूबर २०१३)
दोस्तों !!! देखिये ! शायद कल '' हया '' की धूप खिले ?.
ReplyDelete'' बेहयाई '' की बारिश तो इधर मूसलाधार हुई है ......
समझ सकता हूँ निहार भाई इन कौंधते सवालों पर प्रतिक्रियाओं की कुंठा की स्थिति ... लिखना, विमर्श करना आसान है, कुछ कर पाना बेहद मुश्किल ... शायद इसीलिए मेरी आसक्ति थोड़ी हटी है, ताकि सोच पाऊं कि आखिर क्या कर सकता हूँ मैं।
ReplyDeleteहाँ! यही कर सकता हूँ मैं
ReplyDeleteसच मानो! जरूर कर सकता हूँ मैं....
विचारपरक काव्य ......फिर भी जो कर सकता हूँ वो ज़रूर करते ही रहना चाहिए .....छोटे छोटे कदमों से ही मंज़िल की ओर अग्रसर होते ही रहना चाहिए .....!!बहुत सशक्त सार्थक रचना ....!!
सार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सशक्त सार्थक रचना ....!
ReplyDeleteपर जब-तब, इधर-उधर
ReplyDeleteराष्ट्र-क्रांति की बातें जरूर कर सकता हूँ ..
ये करना भी तो आसान नहीं है आज ... विस्तृत केनवस बना कर जिस राह चल सकता है इन्सान वही किया है आपने ... ओर सच कहो तो ये करना भी आसान नहीं है ... बहुत प्रभावी रचना ....
सच...बहुतों के बीतर का दर्द यही है..हम क्या कर सकते हैं। बहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteसब कुछ लुटा चुकी जननी का हाल बयान हो गया है। उस पर चर्चा विमर्श भी खत्म हो गए हैं। प्रगतिशीलता के मोटे चश्में सोने के हो गए हैं। बातों-विचारों में कक्ष और कुर्सी की सुविधा से निकला निचोड़ है। क्रांतिकारी, वास्तविकता, खेत-खलिहान या जंग के मैदान का व्यवहार प्रगतिशीलता की सोने की कलम से मु्द्रा से सजा कर लिखा जा रहा है और हरेक प्रगतिशील इसमें हस्त प्रक्षालन कर रहा है। बहुत ही धारदार व्यंग्य मारा है प्रगतिशीलवादियों पर।
ReplyDeleteमेरी ही जननी का हाल
मन के भाव कभी न कभी अवश्य कर्म में परिलक्षित होते है ........मंथन तो जारी रहना चाहिए ........बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteलेकिन उन्ही ‘गन्दी गलियों’ को
ReplyDeleteवापस लौट कर, साफ़ करना
बहुत चुनौती भरा अभियान है
सच बयां किया है आपने ....इस चुनौती को स्वीकार करने का साहस हम नहीं जूता पाते
waah kya bat hai aakrosh wayakt karne ka ye bhi anokha tarika hai ...
ReplyDeleteक्या बात है. मन को छूती कविता। यही हमारे समय का कडवा सच है।
ReplyDeleteहवाई बाते करने वाले लोगो पर करारा व्यंग |
ReplyDeleteनई पोस्ट मैं
बहुत विचारात्मक कविता लिखी है आपने हम सब अगर अपने अपने हिस्से के मामूली कर्तव्यों को भी निभाते रहें तो एक दिन बदलाव ज़रूर आएगा |
ReplyDeletesure ... ek din aisa ho sakta hai ...
ReplyDeleteपढ़ते हुए ऐसा लगा कि किसी सन्नाटे में आग लग गयी हो .. अब शब्द नहीं मिल रहे हैं..
ReplyDeleteएक कथित मार्क्सवादी का प्रोफाईल :-)
ReplyDeleteवाह !!शब्द नहीं मिल रहे बहुत ही प्रभावशाली रचना.... लगभग हर प्रगतिशील युवा की कहानी बयां की आपने ....
ReplyDeleteएक आम आदमी की अपनी सीमाएं हैं -
ReplyDeleteबात तो आपकी सही है ये, थोड़ा करने से सब नहीं होता
फिर भी इतना तो मैं कहूँगा ही कुछ न करने से कुछ नहीं होता