आपके चेहरे की यह ललाई
जो उभर आई है
मांसल-पिंडों की थपकियों से
मांसल-पिंडों की थपकियों से
आपके मुंह से झड़ते ये ‘मधुर’
बोल
जो बहुत सुनते आये हैं
पूंजीवादियों से
अब क्रय-और विक्रय के
इस खेल में चिंतालीन हो
इस खेल में चिंतालीन हो
पूछता रहता हूँ अपनी
तन्हाइयों से
कि ये आदमी के अंदर का
यह पूंजीवादी शैतान
यह पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए?
अब आपको दोष दें
या आपकी उपभोक्तावादी सोच को
जिसकी परिधि सिमटी है
क्रय-विक्रय तक
क्रय-विक्रय तक
जन्म से मृत्यु तक
तुच्छ-सुख संचय तक
तुच्छ-सुख संचय तक
तभी शिकागो के इस
‘एंजेल-क्लब’ से लौट
‘एंजेल-क्लब’ से लौट
दमक रही है
आपके चेहरे की आभा
आपके चेहरे की आभा
मदिरा से पोर-पोर में
आनंद है जागा
आनंद है जागा
क्योंकि आपने
जो किया है, ठीक है
जो किया है, ठीक है
यही आपका मन कहता है
यही आपका चिंतन कहता है
कि यही क्रय और विक्रय
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं
पृथ्वी के
जिसमे सिमटा है समस्त जीवन
नीति और अनीति का निर्वहन
अपनी इच्छा से उसका प्रबंधन
तभी तो उस ‘एंजेल-क्लब’ में
जाकर लौट आना
जाकर लौट आना
खेल है महज चंद पैसों का
बस तमाशा है चंद लम्हों का
रौशनी में खड़े उस खंभे का
जिसमे लटकी है
कोई प्रेत सी काया
कोई प्रेत सी काया
अपने पंजर और पिंडों से
स्वयं को परिभाषित कराती हुई
स्वयं को परिभाषित कराती हुई
तेज संगीत में
आपका पुलक जगाती हुई
आपका पुलक जगाती हुई
ताकि उसकी कल की भूख का भूत
रात तक भाग जाए
रात तक भाग जाए
मगर आपके लिए यह
सभ्योचित मंगल-कार्य है
सभ्योचित मंगल-कार्य है
ताकि खेल जारी रहे
क्रय और विक्रय का
क्रय और विक्रय का
क्योंकि पूँजीवाद के इस खेल
में
रिश्ते, कोख, ह्रदय
संवेंदना, धर्म-अधर्म
संवेंदना, धर्म-अधर्म
सभ्यता, असभ्यता
सुकर्म या कुकर्म
सुकर्म या कुकर्म
गोश्त के टुकड़े
कुछ गर्म, कुछ नर्म
कुछ गर्म, कुछ नर्म
हो जानवर या मनुष्य का चर्म
या उन पंजर और पिंडों से
रिसता मानवता का मर्म
रिसता मानवता का मर्म
सब के सब समतुल्य हैं
आपके लिए जैसी हँसी,
वैसे किलोल है
वैसे किलोल है
यह सारा चक्र
महज चंद पैसों का मोल है
महज चंद पैसों का मोल है
मोल है, तराजू है,
वस्तु है, उसकी तौल है
वस्तु है, उसकी तौल है
डंडी के लोच में
उलझा वणिक गोल है
उलझा वणिक गोल है
अर्गला है,
उसके पार आश्लेषित निर्मला है
उसके पार आश्लेषित निर्मला है
तन्वी-तन है, यंत्रिका है
बस यही मामला है
बस यही मामला है
और इस कुंजीहीन प्रश्न में
अगर मानवता है
अगर मानवता है
तो उत्तर में फिर वही
अर्थ की जीवटता है
अर्थ की जीवटता है
फिर वही पंजर-पिंडो वाली
लटकी काया है
लटकी काया है
जो आयी नहीं है
वणिक-बाध्यता से
वो तो तो बस
मांग और आपूर्ति का प्रत्यक्ष रूप है
मांग और आपूर्ति का प्रत्यक्ष रूप है
उस अँधेरे कमरे में
ज्यों चमकती हुई धूप है
ज्यों चमकती हुई धूप है
सदियों को मनुष्योचित
परंपरा का
निर्बाध प्रवाह है
निर्बाध प्रवाह है
पंजर है तो क्या,
उसमे चलती सांसे हैं, धाह है
उसमे चलती सांसे हैं, धाह है
शरीर है, चेतना है
तो मान लेते हैं कि इंसान है
तो मान लेते हैं कि इंसान है
रोटी तो है, कपड़ा है,
क्या हुआ जो पतित मान है
क्या हुआ जो पतित मान है
कम से कम आपके
पूँजीवाद का सूरज उज्जिहान है
पूँजीवाद का सूरज उज्जिहान है
जानता हूँ इस व्यापार से
अक्षुण्ण आपकी तिग्मता
धूमिल नहीं होगी घर लौटकर
गोमुख से बंगाल तक
कहीं भी कर लेंगे आप आचमन
महामृत्युंजय जाप से शाप
शमन
मगर अर्थतंत्र में
उलझा आपका यह पूँजीवाद
उलझा आपका यह पूँजीवाद
फिरेगा ढूँढने कोई
काल-क्रीता
जिसकी पर्यायवाची होगी,
कोई वर्तिका, कोई सीता
कोई वर्तिका, कोई सीता
फिर आप कहेंगे
ठीक है! सब ठीक है!
ठीक है! सब ठीक है!
और मैं पूछता रह जाऊँगा
स्वयं से
कि ये आदमी के अंदर का
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए ?
और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
ReplyDeleteकि ये आदमी के अंदर का
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए ?????? सार्थक प्रश्न ........सुन्दर विवेचन ...........
सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDelete•٠• गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ... •٠• के साथ ललित वाणी ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
पैसे का खेल है सारा !
ReplyDeleteअब क्रय-और विक्रय के
ReplyDeleteइस खेल में चिंतालीन हो
यही आपका मन कहता है
यही आपका चिंतन कहता है
या उन पंजर और पिंडों से
रिसता मानवता का मर्म
सदियों को मनुष्योचित परंपरा का
निर्बाध प्रवाह है
उलझा आपका यह पूँजीवाद
फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
उम्दा अभिव्यक्ति
जानता हूँ इस व्यापार से
ReplyDeleteअक्षुण्ण आपकी तिग्मता
धूमिल नहीं होगी घर लौटकर
गोमुख से बंगाल तक
कहीं भी कर लेंगे आप आचमन
महामृत्युंजय जाप से शाप शमन
मगर अर्थतंत्र में
उलझा आपका यह पूँजीवाद
फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
जिसकी पर्यायवाची होगी,
कोई वर्तिका, कोई सीता
फिर आप कहेंगे
ठीक है! सब ठीक है!
और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
कि ये आदमी के अंदर का
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए ?.. बहुत सुन्दर उत्कृष्ट प्रस्तुति ... भाई साहब कुछ क्लिष्ट शब्दों के अर्थ दे दिया करें तो हम जैसे कम पढ़े लिखे लोगों का भला होगा ...
तिग्मता?काल-क्रीता? और ऐसे कई है .. ऐसे लोग तो चलताऊ टिप्पणी करने एवं बहुत सुन्दर कहने के लिए तो पूरी कविता पढने की भी जहमत नहीं उठाते :)
नीरज जी, तिग्म का अर्थ तेज़ है और काल-क्रीता से मतलब है वो जो समय विशेष के लिए खरीदी जाती है (वेश्या).यहाँ काल-क्रीता का प्रयोग एक स्ट्रिपर के लिए किया है.
Deleteसार्थक प्रश्न .. पर ये मरेगा नहीं कभी भी .. अलग अलग रूप में आता रहेगा सामने ...
ReplyDeleteसार्थक प्रश्न ... पर ये शैतान मरता नहीं ... वापस आता है नए नए रूप में हमेशा ...
ReplyDeleteआपने अनुरोध इस तरह की ठोस सच्चाई को, जिससे जीना हराम है, आप आलेखों के माध्यम से प्रकट करेंगे तो इसे ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ सकेंगे।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना बुधवार 29 जनवरी 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in
आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
निहार भाई आपकी रचना मंत्रमुग्ध सा कर देती हैं | कई बार शब्द ही नहीं मिलते कुछ कहने के लिए बस 'वाह' |
ReplyDeleteपूंजीवादी सोच से जकड़ा है आज का समाज
ReplyDeleteसोचने को विवश करती सार्थक रचना
भाई ये तो प्रकृति का सिद्धांत ही है जीव जीवस्य भोजनम ........हम शादियों से लिखते आ रहे हैं पूजीवाद के खिलाफ लेकिन प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं को समाप्त कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है . अमेरिका में भी पूजीवाद चाइना में भी अब वही हाल है ऐसा लगता है ये प्रकृतिक व्यवस्था ही है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता प्रकृति सिर्फ सबल के साथ होती है निर्बल के नहीं |
ReplyDeleteजहर पिया है यहाँ हर शख्स ने मजबूरी का |
कोई सुकरात की तरह तो कोई शंकर बनकर ||
खूबसूरत कथ्य...
ReplyDeleteबहुत ही प्रभावशाली तरीके से लिखी हैं आपने अपनी बातें
ReplyDeleteजो सोचने को मजबूर कर दे
स्तब्ध हूँ पढ़कर...
ReplyDeleteदेर से टिप्पणी के लिए माफ़ी निहारजी.
बहुत ही प्रभावशाली और सोचने पर मजबूर करती कविता प्रस्तुति ...
ReplyDeleteयही तो है आज की वस्तु स्थिति।
ReplyDeleteयक्ष प्रश्न .. बेबस और विवश करती हुई.. अति सुन्दर कृति..
ReplyDeleteऔर मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
ReplyDeleteकि ये आदमी के अंदर का
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए ?
....एक एक शब्द अन्दर तक झकझोर देता है..सभी बेबस लेकिन उत्तर नहीं किसी के पास...उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
निर्बाध प्रवाह है
ReplyDeleteउलझा आपका यह पूँजीवाद
फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
उम्दा अभिव्यक्ति
संवेदनाओं को कैसे बचाया जाए ....बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति ....!!
ReplyDeleteजो आयी नहीं है वणिक-बाध्यता से
ReplyDeleteवो तो तो बस
मांग और आपूर्ति का प्रत्यक्ष रूप है
सच कहा आपने ....बाज़ार के बीच मरती संवेदनाओं के मूक दर्शक बने हैं हम
बस केवल क्रूर अर्थतंत्र -प्रभावपूर्ण कविता
ReplyDelete