Sunday, January 26, 2014

काल-क्रीता

आपके चेहरे की यह ललाई
जो उभर आई है
मांसल-पिंडों की थपकियों से
आपके मुंह से झड़ते ये ‘मधुर’ बोल
जो बहुत सुनते आये हैं पूंजीवादियों से
अब क्रय-और विक्रय के
इस खेल में चिंतालीन हो
पूछता रहता हूँ अपनी तन्हाइयों से
कि ये आदमी के अंदर का
यह पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए?

अब आपको दोष दें
या आपकी उपभोक्तावादी सोच को
जिसकी परिधि सिमटी है
क्रय-विक्रय तक
जन्म से मृत्यु तक
तुच्छ-सुख संचय तक
तभी शिकागो के इस
‘एंजेल-क्लब’ से लौट
दमक रही है
आपके चेहरे की आभा
मदिरा से पोर-पोर में
आनंद है जागा
क्योंकि आपने
जो किया है, ठीक है
यही आपका मन कहता है
यही आपका चिंतन कहता है
कि यही क्रय और विक्रय
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं पृथ्वी के  
जिसमे सिमटा है समस्त जीवन
नीति और अनीति का निर्वहन
अपनी इच्छा से उसका प्रबंधन   

तभी तो उस ‘एंजेल-क्लब’ में
जाकर लौट आना
खेल है महज चंद पैसों का
बस तमाशा है चंद लम्हों का
रौशनी में खड़े उस खंभे का
जिसमे लटकी है
कोई प्रेत सी काया
अपने पंजर और पिंडों से
स्वयं को परिभाषित कराती हुई
तेज संगीत में
आपका पुलक जगाती हुई
ताकि उसकी कल की भूख का भूत
रात तक भाग जाए
मगर आपके लिए यह
सभ्योचित मंगल-कार्य है
ताकि खेल जारी रहे
क्रय और विक्रय का
क्योंकि पूँजीवाद के इस खेल में
रिश्ते, कोख, ह्रदय
संवेंदना, धर्म-अधर्म
सभ्यता, असभ्यता
सुकर्म या कुकर्म
गोश्त के टुकड़े
कुछ गर्म, कुछ नर्म
हो जानवर या मनुष्य का चर्म
या उन पंजर और पिंडों से
रिसता मानवता का मर्म
सब के सब समतुल्य हैं  
आपके लिए जैसी हँसी,
वैसे किलोल है
यह सारा चक्र
महज चंद पैसों का मोल है

मोल है, तराजू  है,
वस्तु है, उसकी तौल है
डंडी के लोच में
उलझा वणिक गोल है
अर्गला है,
उसके पार आश्लेषित निर्मला है
तन्वी-तन है, यंत्रिका है
बस यही मामला है
और इस कुंजीहीन प्रश्न में
अगर मानवता है
तो उत्तर में फिर वही
अर्थ की जीवटता है
फिर वही पंजर-पिंडो वाली
लटकी काया है
जो आयी नहीं है वणिक-बाध्यता से
वो तो तो बस 
मांग और आपूर्ति का प्रत्यक्ष रूप है
उस अँधेरे कमरे में 
ज्यों चमकती हुई धूप है
सदियों को मनुष्योचित परंपरा का
निर्बाध प्रवाह है
पंजर है तो क्या,
उसमे चलती सांसे हैं, धाह है
शरीर है, चेतना है
तो मान लेते हैं कि इंसान है
रोटी तो है, कपड़ा है,
क्या हुआ जो पतित मान है
कम से कम आपके
पूँजीवाद का सूरज उज्जिहान है

जानता हूँ इस व्यापार से
अक्षुण्ण आपकी तिग्मता
धूमिल नहीं होगी घर लौटकर
गोमुख से बंगाल तक
कहीं भी कर लेंगे आप आचमन
महामृत्युंजय जाप से शाप शमन
मगर अर्थतंत्र में 
उलझा आपका यह पूँजीवाद
फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
जिसकी पर्यायवाची होगी,
कोई वर्तिका, कोई सीता
फिर आप कहेंगे
ठीक है! सब ठीक है!
और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
कि ये आदमी के अंदर का 
यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
कब मरेगा सदा के लिए ?

(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट, २६ जनवरी २०१४)              

24 comments:

  1. और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
    कि ये आदमी के अंदर का
    यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
    कब मरेगा सदा के लिए ?????? सार्थक प्रश्न ........सुन्दर विवेचन ...........

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  2. पैसे का खेल है सारा !

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  3. अब क्रय-और विक्रय के
    इस खेल में चिंतालीन हो
    यही आपका मन कहता है
    यही आपका चिंतन कहता है
    या उन पंजर और पिंडों से
    रिसता मानवता का मर्म
    सदियों को मनुष्योचित परंपरा का
    निर्बाध प्रवाह है
    उलझा आपका यह पूँजीवाद
    फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
    उम्दा अभिव्यक्ति

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  4. जानता हूँ इस व्यापार से
    अक्षुण्ण आपकी तिग्मता
    धूमिल नहीं होगी घर लौटकर
    गोमुख से बंगाल तक
    कहीं भी कर लेंगे आप आचमन
    महामृत्युंजय जाप से शाप शमन
    मगर अर्थतंत्र में
    उलझा आपका यह पूँजीवाद
    फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
    जिसकी पर्यायवाची होगी,
    कोई वर्तिका, कोई सीता
    फिर आप कहेंगे
    ठीक है! सब ठीक है!
    और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
    कि ये आदमी के अंदर का
    यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
    कब मरेगा सदा के लिए ?.. बहुत सुन्दर उत्कृष्ट प्रस्तुति ... भाई साहब कुछ क्लिष्ट शब्दों के अर्थ दे दिया करें तो हम जैसे कम पढ़े लिखे लोगों का भला होगा ...
    तिग्मता?काल-क्रीता? और ऐसे कई है .. ऐसे लोग तो चलताऊ टिप्पणी करने एवं बहुत सुन्दर कहने के लिए तो पूरी कविता पढने की भी जहमत नहीं उठाते :)

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    1. नीरज जी, तिग्म का अर्थ तेज़ है और काल-क्रीता से मतलब है वो जो समय विशेष के लिए खरीदी जाती है (वेश्या).यहाँ काल-क्रीता का प्रयोग एक स्ट्रिपर के लिए किया है.

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  5. सार्थक प्रश्न .. पर ये मरेगा नहीं कभी भी .. अलग अलग रूप में आता रहेगा सामने ...

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  6. सार्थक प्रश्न ... पर ये शैतान मरता नहीं ... वापस आता है नए नए रूप में हमेशा ...

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  7. आपने अनुरोध इस तरह की ठोस सच्‍चाई को, जिससे जीना हराम है, आप आलेखों के माध्‍यम से प्रकट करेंगे तो इसे ज्‍यादा से ज्‍यादा लोग पढ़ सकेंगे।

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  8. आपकी लिखी रचना बुधवार 29 जनवरी 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  9. निहार भाई आपकी रचना मंत्रमुग्ध सा कर देती हैं | कई बार शब्द ही नहीं मिलते कुछ कहने के लिए बस 'वाह' |

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  10. पूंजीवादी सोच से जकड़ा है आज का समाज
    सोचने को विवश करती सार्थक रचना

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  11. भाई ये तो प्रकृति का सिद्धांत ही है जीव जीवस्य भोजनम ........हम शादियों से लिखते आ रहे हैं पूजीवाद के खिलाफ लेकिन प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं को समाप्त कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है . अमेरिका में भी पूजीवाद चाइना में भी अब वही हाल है ऐसा लगता है ये प्रकृतिक व्यवस्था ही है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता प्रकृति सिर्फ सबल के साथ होती है निर्बल के नहीं |

    जहर पिया है यहाँ हर शख्स ने मजबूरी का |
    कोई सुकरात की तरह तो कोई शंकर बनकर ||

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  12. खूबसूरत कथ्य...

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  13. बहुत ही प्रभावशाली तरीके से लिखी हैं आपने अपनी बातें
    जो सोचने को मजबूर कर दे

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  14. स्तब्ध हूँ पढ़कर...
    देर से टिप्पणी के लिए माफ़ी निहारजी.

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  15. बहुत ही प्रभावशाली और सोचने पर मजबूर करती कविता प्रस्तुति ...

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  16. यही तो है आज की वस्तु स्थिति।

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  17. यक्ष प्रश्न .. बेबस और विवश करती हुई.. अति सुन्दर कृति..

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  18. और मैं पूछता रह जाऊँगा स्वयं से
    कि ये आदमी के अंदर का
    यह रक्तबीजी पूंजीवादी शैतान
    कब मरेगा सदा के लिए ?
    ....एक एक शब्द अन्दर तक झकझोर देता है..सभी बेबस लेकिन उत्तर नहीं किसी के पास...उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...

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  19. निर्बाध प्रवाह है
    उलझा आपका यह पूँजीवाद
    फिरेगा ढूँढने कोई काल-क्रीता
    उम्दा अभिव्यक्ति

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  20. संवेदनाओं को कैसे बचाया जाए ....बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति ....!!

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  21. जो आयी नहीं है वणिक-बाध्यता से
    वो तो तो बस
    मांग और आपूर्ति का प्रत्यक्ष रूप है

    सच कहा आपने ....बाज़ार के बीच मरती संवेदनाओं के मूक दर्शक बने हैं हम

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  22. बस केवल क्रूर अर्थतंत्र -प्रभावपूर्ण कविता

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