Tuesday, March 24, 2020

फुर्सत नहीं थी

फुर्सत नहीं थी 

कहनी थी, मुसलसल बात, मगर फुर्सत नहीं थी 
सफर चलता रहा, सरे-रात, मगर फुर्सत नहीं थी 

मुहब्बत में, असीरी का, बयाँ  हमसे ना पूछो 
उलझे थे कई मसलात, मगर फुर्सत नहीं थी

यही एक खेल चलता था सुबह के पौ से शब तक
कभी शह था, कभी थी मात, मगर फुर्सत नहीं थी

दयार-ए -ग़ैर  में तश्नालबी थी एक रवायत 
चाहे हो बादलों का साथ, मगर फुर्सत नहीं थी

वो फिर हँसती रही , कहती रही , कहती रही  
यही कि, सुन लो मेरी बात, मगर फुर्सत नहीं थी

दिखाया ‘ख़ाक’ को फिर से  हयात-ऐ-ग़म ने जलवा
लगाया था किसी ने घात,  मगर फुर्सत नहीं थी

-ओंकारनाथ मिश्र 
(वृंदावन , २५ मार्च २०२०)