पिछली कविता के नायक के लिए एक हितैषी के शब्द
मधुमत्त हाल से मिलता तुझे
निजात
काश! मैं कह सकता तुझसे एक
बात
कहना है, सो कह ही जाता
हूँ, खैर
स्वाधीनता कर अर्थ होता
नहीं स्वैर
मैं ये कहता हूँ क्योंकि
जिस स्नेह-बंधन को माना
तुमने जंजीर
जिन स्नेह-शब्दों को माना
तुमने तीर
जिस पिता के वचनों को माना
तुमने शमशीर
जिस बंधन से मुक्ति के लिए
थे तुम अधीर
जिस स्वाधीनता जो जीत बने
हो तुम वीर
वही स्वाधीनता जब बनेगी
प्रेत का साया
सोचोगे तुम जरूर, क्या
खोया, क्या पाया?
हे मधु-हत मति के स्वामी!
पूछो उन परिभाषाओं से
जिसने वर्णित किया है
तुम्हारा पुरुषत्व
तुम्हारे प्यालों की उंचाई
और गहराई में
‘महा-रंता’ बन चले
पथ-लम्बाई में
पाप-मुक्ति, उदित होते
तरुणाई में
पूछो अपने घर की दीवारों से
उसमे व्याप्त तन्हाई से
जिसे भरते हो तुम
ओडियन-प्रेम से
उसके निर्बाध समर्पण से
बिना ये जाने कि उसका प्यार
क्यों है
उसका प्यार किस से है?
पूछो उन परिभाषाओं से
जिसने अविष्कृत किये हैं
‘मेल (Mail) आर्डर वाइफ’ जैसे शब्द
और सिखाई है तुम्हे
युक्तियाँ प्रेम क्रय की
पूछो उन परिभाषाओं से
जिसने बदल दिया है परिवार
का अर्थ
जिसने बदल दिया है समाज की संरचना
जिसने बदल दिया है
उत्तरदायित्व
और बनाया है समाज को
बन्धनहीन
इस तरह कि प्रेम सीमित रह
गया है
बस ओडियन के अस्तित्व में
ओडियन के समर्पित आलिंगन
में
लेकिन तुम्हारी चेतना जागृत
नहीं
इस बात के बोध के लिए
कि आत्म-सुख में लीन होकर
फैलता है जंगल
जहाँ हावी रहती है
पशु-प्रवृत्ति
पर-दमन के लिए, पर-संहार के
लिए
शायद उसी प्रवृत्ति ने
तुम्हे
विवश किया घर ढाहने के लिए
ताकि तुम जा सको स्वनिर्मित
जंगल में
पत्नी और पिता को दूर धकेल
अपने पाशविक रूप में
जहाँ छलक सके ओडियन का प्रेम
तुम पर!
(निहार रंजन, सेंट्रल, २०
नवम्बर २०१३)
कल 24/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
आत्म-सुख में लीन होकर
ReplyDeleteफैलता है जंगल......................इस कविता को पढ़ कर लगा कि आपको पिछली पोस्ट में डपटा क्यों नहीं! पिछली पोस्ट में आपके लिए जो टिप्पणियां आयीं थीं, उनमें दो हितैषी थे--अमृता तन्मय और भावना ललवानी। क्या ये हितवचन उनकी प्रेरणा से उपजे हैं या कोई और भी है?
विकेश जी,
Deleteइस नायक से मैं आठ साल पहले मिला था. ये मेरे पड़ोस में रहते थे. तब मैं भी उन्हें कुछ नहीं कह पाया था. शायद उन्हें लगता "जज" कर रहा हूँ. इस पोस्ट में उस परिवेश की बात है जो ऐसे नायक का निर्माण करता है.
कुछ और ऐसे नायक हैं जो जिनके बारे में लिखने में एक दो साल लगेगा. संभवतः गद्य के रूप में.
Vikesh ji मेरा surname लालवानी है, ललवानी नहीं :) :) :)
Deleteक्षमा चाहूंगा भावना 'लालवानी' जी।
Deleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुंदर हितवचन.... सही कहा...
ReplyDeleteक्या कहा जाए .. बस ऐसे नायको को देख कर दया आती है और उनके लिए दुआ निकलती है .. सुन्दर शब्द संजोजन से भाव और भी प्रस्फुटित्त हो रहा है इस रचना में..
ReplyDeleteसही कहा आपने आदरणीय निहार जी
ReplyDeleteaapka flow badiya hai sir, sahi baat kahi aapne ki "स्वाधीनता कर अर्थ होता नहीं स्वैर"
ReplyDeleteसोचता तो हर कोई है क्या खोया क्या पाया पर शायद तब सोचता अहि जब समय निकल जाता है हाथ से ... अर्थ पूर्ण रचना ...
ReplyDeleteमंत्र मन के खामोश स्वर से निःसृत होते हैं
ReplyDeleteऔर वही निभते और निभाये जाते हैं !
हम सब जानते हैं
जीवन के प्रत्येक पृष्ठ पर
कथ्य और कृत्य में फर्क होता है
और इसे जानना समझना
सहज और सरल नहीं ...
सम्भव भी नहीं !!! .........
http://www.parikalpnaa.com/2013/11/blog-post_25.html
गहन है अभिव्यक्ति .....कई बार पढ़ी ...अब टिप्पणी दे रही हूँ ....जो है उससे अलग पाने की चाह में वर्तमान भी सरकता सा जाता है ....फिर भी कुछ बातों का परिपेक्ष समझ ही नहीं आता ...या शायद आता भी है तो समय बीत जाने के बाद .....!!बहुत अच्छा लिखा है ....
ReplyDeleteहम अक्सर भूल जाते हैं कि कुछ पाने के लिये कुछ देना पडता है यह स्वतंत्रता जो पाई है उसमें फिर अपनों का अपनापन कहां फिर तो एक श्वान का प्रेम ही मिलेगा जो रोटी देने वाले के लिये दुम हिलाता है प्यार चाहता है पर न मिलने पर भी शिकायत नही करता। अलग सी रचना.
ReplyDeleteहम्म्म्म दोनों ही रचनाएं एक साथ ही पढ़ी दोनों ही ज़बरदस्त भावनाओं के आवेग लिए हुए हैं पहली में एक प्रश्न है तो दूसरे में उत्तर । रही बात स्वतंत्रता की तो मानव सदा ही स्वतंत्र है हर चीज़ के लिए बस एक नियम काम करता है यहाँ तुम जो बोते हो वही काट लेते हो, तुम जो देते हो वही तुम तक लौट आता है ।
ReplyDeleteआपकी लेखनी निरंतर प्रगतिशील है और भाषा में बहुत निखार है मेरी शुभकामनाये सदा आपके साथ है । विशेष रूप से ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं :-
मैं ये कहता हूँ क्योंकि
जिस स्नेह-बंधन को माना तुमने जंजीर
जिन स्नेह-शब्दों को माना तुमने तीर
जिस पिता के वचनों को माना तुमने शमशीर
जिस बंधन से मुक्ति के लिए थे तुम अधीर
जिस स्वाधीनता जो जीत बने हो तुम वीर
वही स्वाधीनता जब बनेगी प्रेत का साया
सोचोगे तुम जरूर, क्या खोया, क्या पाया?
बेहतरीन संवेदनशील अभिव्यक्ति . . .
ReplyDeleteकिसी बंधन में न बँधना ...क्या स्वयं एक बंधन नहीं
ReplyDeleteअलग दिशा में जाने की इच्छा ....क्या स्वयं एक बंधन नहीं
क्या लिखते हैं आप ...सघन संवेदनाओं से परिपूर्ण
नमन
ये तो एकदम उम्दा भाव से सजी दुनिया है....
ReplyDeleteसलाम करता हूँ आपकी कलम को ....
देर से टिप्पणी के लिए माफ़ी
बहुत सुंदर.
ReplyDeleteजिस स्नेह-बंधन को माना तुमने जंजीर
ReplyDeleteजिन स्नेह-शब्दों को माना तुमने तीर
जिस पिता के वचनों को माना तुमने शमशीर
जिस बंधन से मुक्ति के लिए थे तुम अधीर
जिस स्वाधीनता जो जीत बने हो तुम वीर
वही स्वाधीनता जब बनेगी प्रेत का साया
सोचोगे तुम जरूर, क्या खोया, क्या पाया?
बहुत ही उत्कृष्ट भावपूर्ण रचना .. बहुत ही सुन्दर ..
जो इंसान इन रिश्तों में बंधे रहने को बंधन समझता है ...जो ईश्वर के उपहार को अभिशाप समझता है ....जो सच्चे प्रेम को नहीं पहचान पाता ...वह केवल दया का पात्र है ....
ReplyDeleteलेकिन तुम्हारी चेतना जागृत नहीं
ReplyDeleteइस बात के बोध के लिए
कि आत्म-सुख में लीन होकर
फैलता है जंगल
जहाँ हावी रहती है पशु-प्रवृत्ति
पर-दमन के लिए, पर-संहार के लिए-----
अदभुत/निःशब्द
सादर
कि आत्म-सुख में लीन होकर
ReplyDeleteफैलता है जंगल
जहाँ हावी रहती है पशु-प्रवृत्ति
पर-दमन के लिए, पर-संहार के लिए
....उत्कृष्ट चिंतन...सोचने को विवश करती अद्भुत प्रस्तुति..
यक्षप्रश्न! :-)
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