काल-चक्र के अवर्त
में,
घिर जो हुआ था वीरान
किसे ज्ञात था, रहेगा संवृत,
भू-कुक्षि में वो निशान
जिसमे निभृत, सभ्यता की
होगी एक ऐसी कहानी
तार-तार जिसके सुलझाने,
उलझेंगे दुनिया के ज्ञानी
और करते जिनका संधान
कभी नहीं हम थक पायेंगे
परतें उसकी खोल-खोल के
अथक स्तव-रव ही गायेंगे
लुप्त हुआ कूजन-कोलाहल,
जाने किसने थी क्या ठानी
और उठा था वहां से जीवन,
सच कहते दुनिया ये फानी
निवृत्त हुआ सर्वस्व मृदा
में,
रही अस्थियाँ अवशेष बन
विध्वंस के साक्षी निलयों
में,
पसरा था खाली
सूनापन
किसे पता ये, प्रलय-याम था
या धधकी कोई चिनगारी
स्रस्त हुए उत्कर्ष-श्रृंग से,
सकल सभ्यता ही थी हारी
समय-पराजित हुई सभ्यता,
पर ना घटी
उसकी उंचाई
अनावृत वो भूत हुआ जब,
सबकी आँखें थी चौंधियाई
कारीगिरी से भरा शिल्प था,
जाने कैसे थे
दस्तकार
बीते हजारों वर्ष लेकिन,
हिल ना सकी उनकी दीवार
क्या धातुकला की निपुणता,
कितना उन्नत उनका विज्ञान
परिगूढ़ लिपि कैसी उनकी,
नहीं सका कोई
पहचान
और नग्न नृत्यांगना की,
रहस्य भरी है निशान्ति
कांस्य सांचे में ढल भी,
जिसकी ना मलिन हुई कांति
प्रवर नगरवधू वो कोई
या अदा-व्याप्त मधु की रानी
कवरी-बाला संतप्त कोई
या रूपवती वो
अभिमानी
जाने ऐसी कितनी
पृच्छा,
जिसके उत्तर से सब वंचित
विस्तृत भूभागों में कब से,
जाने अब भी है क्या संचित
किसे ज्ञात कब दुनिया पाए,
इसमें गर्भित बातों का
ज्ञान
पर इसमें संशय नही,
धरती की वो सभ्यता महान
अवलोक जिनका ध्वस्त नगर,
जब हो जाता इतना विस्मय
सोचें कैसा जीवन
उनका,
बीता होगा कर्म-तन्मय
कहती हमसे, हो कर्म गुणी,
तो होती ही,
उसकी जय
चाहे गर्त में दबाकर,
कितना भी क्षय करे समय
(निहार रंजन, सेंट्रल, ३०
नवम्बर २०१३)
अवर्त = तूफ़ान, मुश्किल समय
संवृत = संरक्षित, ढँका हुआ
भू-कुक्षि = पृथ्वी की कोख
निभृत = छुपी हुई
स्तव-रव- प्रशंसा के शब्द
निलयों = घरों
प्रलय-याम = प्रलय का पहर
स्रस्त = गिरा हुआ
कवरी-बाला- बंद चोटी वाली लड़की
पृच्छा = जिज्ञासा
अवर्त = तूफ़ान, मुश्किल समय
संवृत = संरक्षित, ढँका हुआ
भू-कुक्षि = पृथ्वी की कोख
निभृत = छुपी हुई
स्तव-रव- प्रशंसा के शब्द
निलयों = घरों
प्रलय-याम = प्रलय का पहर
स्रस्त = गिरा हुआ
कवरी-बाला- बंद चोटी वाली लड़की
पृच्छा = जिज्ञासा
सही कहा समय के गोद में बहुत ही अचंभित कर देने वाले अवशेष अभी भी अनसुलझा है.... हड़प्पा और मेसोपोटामिया के सभ्यता को समझने में अभी भी विद्वानों को वक्त लगेगा .......
ReplyDelete
ReplyDeleteकिसे ज्ञात कब दुनिया पाए,
इसमें गर्भित बातों का ज्ञान
पर इसमें संशय नही,
धरती की वो सभ्यता महान
.......
जैसे यहाँ मिला मुझे गर्भित सार
शब्दों का अद्भुत संसार
भावों का जीर्णोद्धार
निशब्द हूँ आपकी सृजनात्मकता पर …… !!प्रशंसा के लिए शब्द ही नहीं हैं इस उत्कृष्ट रचना के लिए!संग्रहणीय कविता हेतु साधुवाद स्वीकारें !!
ReplyDeleteएक जीवन-समय के अवसान के बाद अर्थात् एक तरह से उसके जीवाश्म बन जाने के बाद पुन: जीवनोत्पत्ति होने पर उसमें विचरित मनुष्य प्राणी अगर पुराजीवन के अवशेषों की खोज करते हैं तो और उसे एक रचनात्मक मर्म समझते हैं तो इससे व्यतीत और वर्तमान जीवन अदृश्य रूप से धन्य होता है..........कुछ ऐसा ही भान हुआ इतिहास के घटनाक्रम पर मोहित कवि के इस कवितांक को पढ़कर।
ReplyDeleteस्तबध हूँ और मूक भी .......... इतिहास ने काव्य में ढलकर कितना सुन्दर रूप धरा है । ये आपकी ओजस्वी लेखनी का कमाल है । सत्य कहूँ इसे अतिश्योक्ति न समझें मुझे तो ऐसा लगा जैसे मैं "जय शंकर प्रसाद' सरीखे कवि का कोई महा काव्य पढ़ रहा हूँ ।
ReplyDeleteनमन है आपकी निरंतर प्रखर होती काव्य प्रतिभा को ।
अद्भुत लेखन........
ReplyDeleteहक्का बक्का रह जाती हूँ आपकी रचना को पढ़ कर
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी यह कविता ,सभ्यता का वो दस्तावेज जो धरती के गर्भ में छुपे हुए रहस्य को जानने के लिए प्रोत्साहित करता है !
ReplyDeleteनई पोस्ट वो दूल्हा....
नई पोस्ट हँस-हाइगा
बहुत ही उत्कृष्ट , सुन्दर सृजन .. हड़प्पा के इतिहास को कविता में जीवंत कर दिया बहुत से पहलुओं को सृजनत्माकता के साथ छुआ है .. बधाई ..
ReplyDeleteकिसे ज्ञात कब दुनिया पाए,
ReplyDeleteइसमें गर्भित बातों का ज्ञान
पर इसमें संशय नही,
धरती की वो सभ्यता महान..
सभ्यताएं आती हैं जाती हैं ... स्थिर तो कुछ भी नही रहता समय और काल के सिवा ... पर कवि के भाव उसे जीवित रखते हैं सदियों तक ... जैसे आपने ...
सचमुच भव्य और समृद्धिभरा हमारा अतीत -जयशंकर प्रसाद के शिल्प की याद आयी
ReplyDeleteबेहद सुंदर रचना है यह ! अनूठी ...
ReplyDeleteबधाई आपको !
हड़प्पा की सभ्यता पर बेहद सारगर्भित तरीके से जो आपने तस्वीर उकेरी है, वो हर तरह से बेमिसाल है....
ReplyDeleteमैंने कई बार महसूस किया है कि आपकी कलम में एक सटीक ज्वार है... वो जब तन-मन पे चढ़ता है तो अपने मुकाम को हासिल कर ही दम लेता है....जैसे आपने लिखा था....लैलोनिहाड़ चल तिमिर छाड़.....
कर्म-तन्मयता स्वयं प्रमाण दे रही है इस कालातीत सृजन में.. अति सुन्दर काव्य-कृति..शुभकामनाएं..
ReplyDeleteहडप्पा संस्कृति पर आपकी यह रचना भी उसे अक्षय बनाती है।
ReplyDeleteपहली बार शायद इस ब्लॉग पर आना हुआ और यहाँ पढ़ी पहली ही रचना ने बेहद प्रभावित किया है।
ReplyDeleteअद्भुत ।
तार-तार जिसके सुलझाने,
ReplyDeleteउलझेंगे दुनिया के ज्ञानी
और करते जिनका संधान
कभी नहीं हम थक पायेंगे
परतें उसकी खोल-खोल के
अथक स्तव-रव ही गायेंगे ....
अपनी ही सभ्यता को यूं काव्य में ढालकर गजब के भाव संजोय है आपने सचमुच
अदबुद्ध था वो समय और उस समय के लोग हम कितनी भी कोशिश क्यूँ ना करलें उसके तार-तार सुलझाने की, मगर शायद अपनी उस महान सभ्यता के उस रहस्य को हम कभी नहीं समझ पायेंगे....
उत्कृष्ट प्रस्तुति.सुन्दर रचना
ReplyDeleteअच्छा कहा आपने ! इसीलिए तो कहते हैं शायद कि सदियों रहा है ........कुछ बात है कि हस्ती .....
ReplyDeleteधरती के गर्भ में न जाने ऐसे कितने इतिहास दबे पड़े होंगे !
ReplyDeleteसुन्दर वर्णन किया है !
आप ने इतिहास को बहुत उम्दा रूप दिया है...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
बहुत उत्कृष्ट रचना...
ReplyDeletewah bhai aitihasik tathyon pr itani gahari kalpana karke saras bana dena ye aascharyjanak laga
ReplyDeleteअद्भुत रचना...
ReplyDeletenice information
Deleteitihas ko ruchipurn bna diya ...
ReplyDeleteसमय के गर्त में दबे रहस्य बनकर सभ्यतायें इंसान को हमेशा ही आकर्षित करती रही हैं ....बहुत सुंदर रचना है .अनूठा विषय .
ReplyDeleteस्कूल के दिनों में उसकी फ़ोटो ही देखि थी फिर भी हड़प्पा की नारी प्रतिमा आज भी ज़हन में ताज़ा है ...आपने उसे जीवंत कर दिया
nice information
ReplyDeleteबहुत उत्कृष्ट रचना..
ReplyDeletemantra tantra sadhna
बहुत उत्कृष्ट रचना..
ReplyDeletemantra tantra sadhna