अस्त-व्यस्त अकुलायी लपटें
अकबर का प्रभाहीन
स्वर्ण-क्षत्र
याचनारत श्रद्धालु यत्र-तत्र
सर्वत्र
बस इतना ही
ज्वालामुखी मंदिर का
विस्तार
उसपर ये कुहासा और ठाड़
कहो क्या है रोमांच भरने को
वहां ?
यही सवाल थे
और मैं चुप था
क्योंकि मंदिर में वही है
जो तुमने कहा है
तुम या मैं
यानि मेरे भारत की नयी पौध का
एक रूप
जिसने ना अन्न की किल्लत
देखी है
ना ‘कंट्रोल’ से वस्त्र पाया
है
देखी है तो बस
‘शाइनिंग इंडिया’ की तस्वीरें
फिल्मों में, अखबारों
में
तथा पाया है
देसीपन में व्यक्तित्व-लघुता
का भय
और उर-स्फीति
किसी रोबदार जामे में
हल्के से सिगरेटी धुएं के
बीच
धूपचश्मे में नयन कैद (या
स्वतंत्र) कर
मधुरस भरा एक गिलास हाथ में
लिए
आधुनिक भारतीय समाज में बा-फक्र
‘आधुनिक’ हो जाना
इसीलिए मैंने अस्वीकार नहीं
किया
तुम्हारे ‘बीच-ट्रिप’ के प्रस्ताव को
क्योंकि आधुनिकता की इस
आंधी ने
हमें सिखाया है, ‘छुट्टियों’
का मतलब
थाईलैंड के द्वीप पर, किसी
छतरी के नीचे
या किसी ’कबेना’ में
सुस्ताते
हाथों में ‘माई ताई’ का भरा
प्याला लेना
प्याले के ‘जमैकन रम’ से
जगी
आभा और उर्जा भरी
एक तस्वीर उतार लेना
ताकि हर जगह
‘वाओ’, ‘क्यूट’,
‘ब्यूटीफुल’, ऐडोरेबल’ की बरसात हो
और जीत हो
दोस्त के गोवा ट्रिप पर
‘माई ताई’ की जीत हो ‘फेनी’
पर
अस्वीकार कैसे करता मैं?
वो मेरी आधुनिकता की प्रथम
परीक्षा थी
तभी झट से हामी भर दी थी
मैंने
‘फॉर अ बीच-ट्रिप टू
फ्लोरिडा’
वही नीले पानी, नीले मेघ
अनगिन ‘बीचों’ का फ्लोरिडा
और पूछा था पता एक मीत से
मखमली रेत वाली एक ‘बीच’
का
ताकि प्रिय के नाज़ुक पैरों
को
छू ना ले कोई कंकड़
और मेरे सीने जा ना लगे,
कोई पत्थर
अब इस ‘बीच’ पर आकर, प्रिय
शिकवा क्यों कि ‘न्यूड’ ‘बीच’
है
‘बीच’ ‘न्यूड’ नहीं है
लोग ‘न्यूड’ है
आधुनिक बनने की दौड़ में
वस्त्र त्याग कर
मैं ‘न्यूड’ हूँ
पर मुझमें क्यों होता
तुम्हे
असभ्यता का भान?
शायद हमने पाया नहीं अबतक
पूर्ण आधुनिकता का ज्ञान
उदासी मत बढाओ
क्योंकि मैं कुंठित नहीं
हूँ
इस ‘न्यूड बीच’ पर
तुम्हारे वस्त्रावृत तन को
देख
या अंतर्मन की इच्छा है
मेरी
कि मेरी तरह आधुनिकता की
होड़ में
नग्नदेही हो जाओ तुम भी
पुराने तर्कों के साथ
कि यही तन का आदि-रूप है
जिसमे अहं क्षीण है
आत्मा निस्तीण है
लेकिन तुम खड़ी हो, स्तब्ध
आधुनिकता और अत्याधुनिकता
के द्वन्द में
पर यह द्वन्द तुम्हारा नहीं
हमारी पौध का है
जो भाग रही है इस अंधी दौड़
में
कभी ऐश्वर्य प्रदर्शन के
लिए
कभी तुच्छ तुष्टिकरण के लिए
प्रिय!
सच कहूं तो देना वस्त्र त्यज
था नहीं मेरे लिए भी सहज
इसीलिए क्यों ना
इसी ‘बीच’ पर धो डालें
हम अपनी इस ‘आधुनिकता’ का
रंग
जो पाया है हमने अंधी दौड़
से
और हो जाएँ वही
जो हम हैं
(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, २२ दिसम्बर २०१३)
और हो जाएँ वही
ReplyDeleteजो हम हैं...
सुन्दर रचना...
पर मुझमें क्यों होता तुम्हे
ReplyDeleteअसभ्यता का भान?
शायद हमने पाया नहीं अबतक
पूर्ण आधुनिकता का ज्ञान .............. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .......
पूरा चक्र दोहरा दिया है इस रचना के माध्यम से ... आधुनिकता और बनावटी आधुनिकता के बीच का फर्क ... पर वापस लौटना समाधान तो नहीं ...
ReplyDeleteलेकिन तुम खड़ी हो, स्तब्ध
ReplyDeleteआधुनिकता और अत्याधुनिकता के द्वन्द में
पर यह द्वन्द तुम्हारा नहीं
हमारी पौध का है.........????????.......सुंदर .........
ऐसी अनुभूतियाँ मुझे भी हुई, परन्तु किसी रचना में व्यक्त न कर सका. बहुत आत्म-मंथन करता रहा सदैव।
ReplyDeleteजब शिकागो के समीप लेक मिशिगन के तट पर यूँही दोस्तों के संग 'एन्जॉय' करने गया, तो बरबस मुझे गंगा का तीर याद आ गया - कहाँ वो तट जहां छठ'जैसा पर्व होता था, जहां श्रद्दा थी, समर्पण था..... और कहाँ ये तट - जहाँ 'एंजॉयमेंट' ढूँढा जा रहा है अपने सापेक्ष। . ये जानते हुए भी कि 'इंडिविजुअलिटी' कभी 'एंजायबल' नहीं हो सकती।
बेहतरीन अभिव्यक्ति निहार भाई! बहुत आनंद मिला विचारों की ऐसी समीपता का बोध होने पर!
द्वंद्व दर द्वंद्व -संस्कृतियों का!
ReplyDeleteआज की अंधी दौड़ में भी आँखें खुली रहे तो ही चित्र स्प्ष्ट होता है ..नि:संदेह सुन्दर रचना है ..
ReplyDeleteआधुनिकता के नाम पर होती फूहड़ता को बखूबी शब्द दिए हैं आपने । शानदार |
ReplyDeleteआपने सही का कि प्रिय क्यों न हो जाएं हम पहला आदमी और औरत। अंधी आधुनिकता से छुटकारा पाने का यह तरीका प्रभावशाली होगा, यदि अपनाया जाए तो।
ReplyDeleteआधुनिकता की दौड़ में केवल आगे ही आगे निकल जाने की होड़ पर बहुत करारा तमाचा .... बहुत प्रभावशाली
ReplyDeleteवाह... क्या खूब तस्वीर उतारी है आपने...
ReplyDeleteपुराने तर्कों के साथ
कि यही तन का आदि-रूप है
जिसमे अहं क्षीण है
आत्मा निस्तीण है ....
आधुनिकता व अंधी आधुनिकता के बीच ढेर सारे तर्क हैं, सवाल-जवाब व फासला है.... बहुत महीन नजर चाहिए..
करारा तमाचा
ReplyDeleteआपकी इस रचना पर तो खड़े होकर ताली बजाने का मन कर रहा है मेरा, क्या सही नक्शा खींचा है आपने आधुनिकता की अंधी दौड़ का सच मज़ा आगया पढ़कर आभार ...
ReplyDeleteवाह...वाह...बहुत बढ़िया प्रस्तुति...आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-तुमसे कोई गिला नहीं है
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति , संस्कृति नित्य संक्रम के दौर से गुजराती है लेकिन अपनी आँखे खुली रखकर एवं विवेक शील रहकर है अपने निमित बेहतर संस्कृति का निर्माण कर सकते है ..
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति ...गहन अंतर्द्वंद्व उकेरा है ...
ReplyDeleteनववर्ष मंगलमय हो ....
बहुत बढ़िया..
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