दीवार पर टंगे दर्पण में
एक चेहरे के भीतर सौ चेहरे
और फिर अपने मन में
देखेंगे खुद को हो गंभीर
तो दिखेगी अपनी अलग-अलग तस्वीर
दीवार का आइना दिखाता है
तो दिखेगी अपनी अलग-अलग तस्वीर
दीवार का आइना दिखाता है
सिर्फ अपना बाह्य शरीर
पर मन का आइना दिखाता है वो चेहरे
जिसे देख खुद को होता पीर
पर मन का आइना दिखाता है वो चेहरे
जिसे देख खुद को होता पीर
हमें देख जो दुनिया मुस्कराती है
शायद सब अच्छा हमारे में पाती है
पर पूछें ह्रदय से तो करेगा स्वीकार
कहाँ मुक्त हो पाते हैं हमसे सांसारिक विकार
मद, लोभ, काम, झूठ, क्रोध
सबका अपने अन्दर हमें होगा बोध
इन रोगों से निकल जाने की होती है चाहत
मगर दुनिया नहीं देती इसकी इज़ाज़त
मगर दुनिया नहीं देती इसकी इज़ाज़त
सच बोलने को जब होठों पर होती जुम्बिश
आ ही जाती है कई तरह की बंदिश
आ ही जाती है कई तरह की बंदिश
चेहरे देख, काया निहार
भुजाओं का देख आकार
लोगों का सुन आग्रह, दुराग्रह
फिर अपने मन का पूर्वाग्रह
भुजाओं का देख आकार
लोगों का सुन आग्रह, दुराग्रह
फिर अपने मन का पूर्वाग्रह
सच, सच नहीं रह पाता
सच झूठ में है बदल जाता
सच झूठ में है बदल जाता
शब्द बदल जाता है, स्वर बदल जाता है
सच निकलने से पहले हमारा दम निकल जाता है
फिर भी चेहरे पर डाले झूठा आवरण, पथ पर
करते उद्घोष खुद को कहते हम सत्यंकर
गाते हैं धर्म-गीत, देते हैं उसके उपदेशों पर जां
कोशिश करते कि असल रूप हो ना हो उरियां
साबित आखिर कर ही देता है
सच के सामने कितना मजबूर है इंसान
सच निकलने से पहले हमारा दम निकल जाता है
फिर भी चेहरे पर डाले झूठा आवरण, पथ पर
करते उद्घोष खुद को कहते हम सत्यंकर
गाते हैं धर्म-गीत, देते हैं उसके उपदेशों पर जां
कोशिश करते कि असल रूप हो ना हो उरियां
साबित आखिर कर ही देता है
सच के सामने कितना मजबूर है इंसान
परम सत्य
को ढूँढने जब जाते हम निकल
तो लगता काश! सच से होती बातें दो पल
मगर ये मृत्यु दगाबाज़
होता नहीं जीते जी किसी से हमआवाज़
वेद-पुराण सब यही कहते है
सत्य सबसे बली
है
सब पढ़कर भी हम
बने हुए कितने हम छली हैं
क्योंकि सत्य को पेश करना जोड़-तोड़ कर
वैसा ही है जैसे जाना सत्य छोड़ कर
हमारे अस्तित्व और असत्य का है अटूट बंधन
बिना क्लेश और पीड़ा के नीरस ना हो जाए ये जीवन
ताउम्र स्वर्ग की चाहत का रह ना जाए कोई अर्थ
जीवन को शान्ति में गुज़ार हो ना जाए समय व्यर्थ
इसीलिए भले ही दुनिया रहे कोसती
काम क्रोध मद लोभ से टूट ना पाती हमारी दोस्ती
सब पढ़कर भी हम
बने हुए कितने हम छली हैं
क्योंकि सत्य को पेश करना जोड़-तोड़ कर
वैसा ही है जैसे जाना सत्य छोड़ कर
हमारे अस्तित्व और असत्य का है अटूट बंधन
बिना क्लेश और पीड़ा के नीरस ना हो जाए ये जीवन
ताउम्र स्वर्ग की चाहत का रह ना जाए कोई अर्थ
जीवन को शान्ति में गुज़ार हो ना जाए समय व्यर्थ
इसीलिए भले ही दुनिया रहे कोसती
काम क्रोध मद लोभ से टूट ना पाती हमारी दोस्ती
एक चेहरे के भीतर सौ चेहरे
क्या गोरे क्या काले क्या भूरे
छद्म हँसी, छद्म प्यार, छद्म आह
छद्म की इनायत भरी निगाह
धर्मघरों में घूमते पापी सरेआम
स्वर्ग के डाकिये बन देते हैं पैगाम
अपने ही हाथों से पौधे में प्राण भर
उसी हाथों से देते है पौधे को कुतर
अपने आलाओं के नाम जपते पुरवेग
रखते पैरहन में एक चमचमाता तेग
विज्ञान कहता है हम निन्यानवे फीसदी सम
इसलिए रह ना जाए ये भ्रम
चाहे ढूंढों समुद्र में गोता मार
या ढूंढों जंगल-झाड़
पूर्ण सत्य नहीं मिलने वाला
हम बहुरूपियों का ही होगा सदा बोलबाला
छद्म हँसी, छद्म प्यार, छद्म आह
छद्म की इनायत भरी निगाह
धर्मघरों में घूमते पापी सरेआम
स्वर्ग के डाकिये बन देते हैं पैगाम
अपने ही हाथों से पौधे में प्राण भर
उसी हाथों से देते है पौधे को कुतर
अपने आलाओं के नाम जपते पुरवेग
रखते पैरहन में एक चमचमाता तेग
विज्ञान कहता है हम निन्यानवे फीसदी सम
इसलिए रह ना जाए ये भ्रम
चाहे ढूंढों समुद्र में गोता मार
या ढूंढों जंगल-झाड़
पूर्ण सत्य नहीं मिलने वाला
हम बहुरूपियों का ही होगा सदा बोलबाला
(निहार रंजन,
सेंट्रल, २० अप्रैल २०१३ )
सोचने पर विवश करती रचना ...!!!
ReplyDeleteएक चेहरे के भीतर सौ चेहरे...
ReplyDelete--------------------------------
उम्दा रचना....
सत्य से दूर कहाँ ...?आपकी रचना तो सत्य के बहुत करीब है ....!!संवेदनशील मन पढ़ कर, कुछ असत्य से दूर होगा और सत्य के करीब पहुंचेगा ...!!
ReplyDeleteसार्थक और गहन सृजन ....बधाई स्वीकारें ...!!
मन का आइना दिखाता है वो चेहरे
ReplyDeleteजिसे देख खुद को होता पीर
अर्थपूर्ण पंक्तियाँ .....सुंदर भाव ....!!
ReplyDeleteबहुत गहन रचना .....
ReplyDeleteGod Bless U ....
बहुरूपिया ... या कहो तो हिप्पोक्रेट ...
ReplyDeleteहम सब यही हो के रह गए हैं आज ... सोचने को विवश करती रचना ...
मद, लोभ, काम, झूठ, क्रोध
ReplyDeleteसबका अपने अन्दर हमें होगा बोध...............मात्र यह पंक्तियां मेरी टिप्पणी नहीं हो सकती आपकी इस उत्कृष्ट कविता पर। भरपूर समय में पुन: आपकी कविता पंक्तियों को पढ़ूंगा। इनमें गहनता है।
अपने ही हाथों से पौधे में प्राण भर
ReplyDeleteउसी हाथों से देते है पौधे को कुतर
yahan par to rup badla hua nahi dikha... swikorokti ke sath kiya gya sanvad hai yah... aur esse sundar rup bhala kya chahiye....
तो लगता काश! सच से होती बातें दो पल
ReplyDeleteमगर ये मृत्यु दगाबाज़ ..kahan mauka deti hai .....very nice ....
हम बहुरूपियों का ही होगा सदा बोलबाला
ReplyDeleteयही तो माया है जो दीखता है हमें चहुँ ओर
नहीं है यह सत्य बस केवल सत्याभास
सत्य का मुंह ढका बढता छ्दमाचार
अच्छी कविता निहार मौलिकता की गंध लिए
ये सेन्ट्रल के आगे मन तुरंत जेल जोड़ देता है :-)
बेहद गहन भाव लिये ... अनुपम प्रस्तुति
ReplyDeleteदार्शनिक भाव से युक्त एवं मानव मन के द्वंद्वो को परिभाषित करती अच्छी कविता .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteसच के सामने कितना मजबूर है इंसान
ReplyDelete....आज के यथार्थ का गहन चिंतन और बहुत सशक्त अभिव्यक्ति...
बहुरूपिया ...... सोचने को विवश करती रचना !!!
ReplyDeleteसमाज का आइना दिखाती रचना। बधाई।
ReplyDelete............
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सच बोलने को जब होठों पर होती जुम्बिश
ReplyDeleteआ ही जाती है कई तरह की बंदिश.
सच भी मजबूर कर देता है महसूस करने और व्यक्त करने के द्वन्द में. सोचने पर विवश करती है सुंदर कविता.
अपने ही स्वार्थ में हम ही बने -बहुरूपिया..
ReplyDeleteइसीलिए भले ही दुनिया रहे कोसती
ReplyDeleteकाम क्रोध मद लोभ से टूट ना पाती हमारी दोस्ती------
जीवन के यथार्थ का यही सत्य है
बड़ी सहजता से जीवन की सच्चाई को व्यक्त किया है
निहार भाई जी आपने
बहुत बहुत बधाई सार्थक रचना हेतु
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?
सच बोलने को जब होठों पर होती जुम्बिश
ReplyDeleteआ ही जाती है कई तरह की बंदिश ...............वाह बहुत ही सुन्दर लगी पोस्ट.....बधाई निहार भाई।
बहरूपिये ...हर जगह !!!
ReplyDeleteसत्य है, सत्य बाहर नहीं मिलने वाला .
ReplyDeleteजाने स्वार्थ एवं विकारों के कारागार से आत्मा कब मुक्त होगी!
ReplyDelete***
तीन वर्षों से अपनी कलाई पर राखी सजाये संवेदनशील हृदय के उदगार है, क्यूँ न होंगे प्रभावी!