Friday, May 30, 2014

मोरचंग

कौन जानता है
किसकी दंतपंक्ति है,
किसका हाथ है
किसका 'तार' है
कौन वो रूपोश है
किसका ये विस्तार है 

नहीं, संगीत नहीं
नहीं, नहीं, नहीं
इनमें संगीत नहीं
नाद नहीं,  नर्दन है 
क्रंदन है, घोर क्रंदन है
अप्रत्यास्थ है, अखंडनीय है,  अधर्षनीय है
कितना जिद्दी है
बजता ही रहता है
प्रारंभ से अंत तक
यह मोरचंग
क्यों, किसलिए
कौन जान पाया है ?

(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, २७ मई २०१४)

Saturday, May 24, 2014

आज की रात

उधर से तुम हाथ उठाओ, इधर से हम हाथ उठायें
इसी तरह से, चलो जश्न की रात बिताएं

कई दिन हैं बीते, तो ये रात आई 
किस्सा बड़ा है, हम कैसे सुनायें 

मुन्तज़िर तुम भी थे, मुन्तजिर मैं भी था 
लो आखिर में चल ही पड़ी हैं हवाएं 

जुबां पर आ ना सकेगी दूरियों की बात 
खरामा-खरामा कदम तो बढायें 

बातों-बातों में, गयी रात सारी  
उठायें सदा हम, सुबह को बुलाएं

(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, २४ मई २०१४ )

Saturday, May 17, 2014

देहाती बातें

बहुत शान्ति है इस खटिये में
जिसमे धंस कर, धंस जाता हूँ अपने आप में
बहुत दूर, बहुत अंदर, आत्मिक-आलाप में
जिसमे न बल्ब है, न रौशनी है
न शोर है, न मांग है, न आपूर्ति है
ना विरोध है, ना स्वीकृति है
न स्वाप्तिक उपवन है, न अवचेतन है, न सच्ची जागृति है
है तो बस खाट के ये चार खूंटे
इनसे चिपटी हरे बांस की ये बत्तीयाँ
बत्तीयों में तनी यह मच्छरदानी
उसके ऊपर धेमरा बथान की नयी फूस का छत
और ये चार दीवारें टाट की
जिनसे गुजरती है कोसी की अलसायी यह आर्द्र हवा
कभी हिमालयी पवन की तरह
तो कभी तापगृह के वाष्प-कक्ष की तरह
और मैं मरा पड़ा सोचता हूँ
हिताची, कब आएगा यहाँ हितैषी बनकर?

इसी अभिलाषा के बीच देखता हूँ
टाट के यथार्थरूप को
जिसके फांको के बीच खड़ी है लालगंज वाली काकी
तुलसी को करती अर्पित जल-फूल
करती हुई अपनी शंकाओं को निर्मूल
सोचती मृत्यु बाद, वैतरणी न रहे अनिस्तीर्ण
जुड़ जाए, उसका यह ह्रदय विदीर्ण
लौट आये उसका लाल
जो साठ वर्षीय संसदीय घमासान के बाद भी
कर गया पलायन गाँव से    
टेलीविजन के विज्ञापनों में देखी
सपनों की दुनिया देखने  
टाट की इन दीवारों को,
कंक्रीट की दीवारों में परिवर्तित करने
भानस-घर, चिनबार को
‘मॉड्यूलर किचेन’ का रूप देने
और तभी विचिन्ता में डूब जाता हूँ मैं
कि ‘परमेष्टि’ की परिभाषा कितनी बदल गयी है
दो पीढ़ियों के बीच

बहुत बदल गयी है, बहुत बातें
इस झोपड़ी से उस संसद तक
पर बदली नहीं ठगी
उस लाल ने देश को ठगा
इस लाल ने लालगंज वाली काकी को
जो कर गया था प्रत्यागमन की बात
साल दो साल में, किसी भी हाल में
और जा फंसा है महानगर के नागरी व्यामोह में
खो गया है ज्यों किसी शिखर के आरोह में
या पिसती जिंदगी में ही देखता है मोक्ष
उस लाल का ठगा यह लाल  
फिर गाँव क्या, शहर क्या ?

यही कुछ बातें है, देहाती बातें  
जो खाट की शान्ति में मिलती है मुझे
और पार्श्व में द्वन्दरत पड़ोसियों के श्रीमुख से 
देसी गालियों की अनाहूत वर्षा
जिसकी जड़ में
खुरखुर झा नहीं है
सेहेंता गोबरपथनी नहीं है
कोई लाल ही है
लालगंज वाली काकी नहीं  


(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, १७ मई २०१४) 

Sunday, May 11, 2014

प्रजातंत्र: चार प्रसंग

प्रसंग एक- कुछ नया नहीं
यह गरीब!
पिसता था, पिसता है, पिसता ही रहेगा  
देह घिसता था, घिसता है, घिसता ही रहेगा

किसी खेत में, किसी कारखाने में, किसी वेश्याघर में
मरेगा, कटेगा, बिकेगा
छला है, जलेगा, भुनेगा
गिरेगा, गिरेगा, गिरेगा

जब-जब चुनाव आयेंगे
कोई गाल छूएगा
कोई भाल चूमेगा
कोई इन्हें सर पर रख
सारा शहर झूमेगा
फिर चुनाव बीतते ही  
लात इनको, बात इनको
कई घोटाले, घात इनको
और यह दुखिया बेचारी
हाथ जोड़े तब खड़ी थी
हाथ जोड़े अब खड़ी है   
पेट से तब भी मरी थी
पेट पर अब भी मरी है
भूख की जिद्दी ये नागिन
फन वो काढ़े तन खड़ी है, तन खड़ी है  
दूध पीती उसके घर से
जिसके हाथों दे दिया बीन हमने
और कहा था 
लो बजाओ! लो बजाओ!
लो भगाओ! लो भगाओ!
पर कभी न बीन बजता,
पर कभी ना दूध घटता
ज्यों की त्यों अब भी अड़ी है
फन वो काढ़े तन खड़ी है, तन खड़ी है  
तन खड़ा है वो भी गिरगिट
झुक गया था जो हमारे पैर पर
जा रहा है पंचवर्षी सैर पर
पूछता है वही हमसे
कौन गिरगिट, कौन उल्लू
बोलो दीनू, बोलो लल्लू !

प्रसंग दो- यहाँ भी, वहाँ भी  
दुनिया के दो बड़े प्रजातंत्रों में रह कर देख लिया मैंने
यह प्रजातंत्र का दोष नहीं
यह अल्पता या प्रचुरता की बात नहीं
कि जब-जब चुनाव आता है
यही धर्म का, नस्ल का विभाजनकारी सिक्का चलता है
हर हाल में गरीब ही पिसता है

प्रसंग तीन- तो दोष किस में ?
क्या वही हमशक्ल अपना
सभ्यता की कर उपेक्षा जो बढ़ा है
अपने गुणसूत्रों में पशुता बचाये
‘सर्वशोषण पाठ’ जींवन में पढ़ा है
और लिया जान है जीवन दौड़ ऐसी
जिसमे कोई साथ उसके न दौड़े
गर कोई हो जाय फिर भी खड़ा तो
करने पंगु सबसे पहले टांग तोड़े
फेंक रोटी उसकी खाली थाल में
कहता उससे लो दबा लो गाल में

प्रसंग चार- हम मूर्ख
दशमुखी के अट्टाहस को फिर ना सुनने को
प्रत्यंचा पर तीर कभी हम तान ना पाए
छः दशकों से ठगे हुए, पहचान ना पाए
बीच हमारे कौन भेड़िया जान ना पाए

(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, १० मई २०१४ )

Monday, May 5, 2014

पिया के पाश में

फिर उसी आनंद की तलाश में
लौट आया हूँ पिया के पाश में

कब कौन जी से चाहता,
पिया से दूर जाना
और पिया बिन
हो वियोगी, कविता बनाना
पर ये जीवन, हाय निर्मम!
कभी हमसे पूछ पाता
है कोई स्नेही,
जिसे बिरहा लुभाता ?
है कोई रागी,
हो जिसे बिछोह-राग?  
है कोई परितुष्ट,
कर अपने कंज-मुखी का त्याग?

पर क्या करे जीवन,
ये जो उदर की आग है
हो कोई भी राग, बंधन
करना पड़ता त्याग है  
सत्य है, जीवन गति का  
ये ही सच्चा मूल है
नित्यशः उसकी ही चिंता,
कौन सकता भूल है   
हैं सभी अनुबद्ध उसमे
मैं भी उसको मानता हूँ
पर हिया जो पीर है
मैं ही केवल जानता हूँ

सो दूर करने क्लेश को
फिर से गाढ़े श्लेष को
आ गया हूँ उस गली में, जिस गली में
स्वप्नलोकी  कुंतला है  
ना कोई चिंता, बला है
और यमस्विनी प्रीतिकर है
समय लगता है, स्थिर है
हूँ जहाँ एकांत में, निर्द्वंद मैं
बंधता हुआ जैसे किसी भुज-बंध में  

.. हा! इस भुज-बंध में
सिमटा हुआ संसार है
और इस संसार में
देखो कितना विस्तार है
जिसमे उड़ता जा रहा हूँ,
इस किनारे, उस किनारे  
चाँदनी में स्निग्ध हो,
छूते हुए असंख्य तारे 
कल्पना के लोक में
रुनझुन रुनकते नाद से  
नव उर्जा का सद-क्षण सहज संचार है
.. हा! पुनः अन्तःस्वनित अति प्रबल यह झनकार है

अब क्या किसी को दोष दें
भूल सारे रोष मैं
उड़ते रहते इस धनी आकाश में
लौट आया हूँ पिया के पाश में   

(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, ५ मई २०१४)   

काका के लिए

मैं जनता हूँ, अनिर्दिष्ट पथों में ही आत्मा सृत्वर है 
मैं जानता हूँ, भव-कूप का अंतहीन स्तर है
मैं जानता हूँ, कितना निर्दय काल का कर है
मैं जानता हूँ, भूतल से नभ के बीच कितने यमित स्वर हैं
मैं जानता हूँ, कितना निर्वचनीय यह आत्मिक समर है
और जब अपने यमित करों से आत्मिक स्पर्श के लिए
विवश हो चतुर्दिक भरमाता हूँ
शायद आपका ही हाथ अपने माथे पर पाता हूँ

मैं जानता हूँ, आपकी और अपनी सीमाएं
मैं जानता हूँ, मुक्ति और बंधन की परिभाषाएं
मैं जानता हूँ, चेतनता की विवशताएँ
मैं जानता हूँ, इस लोक और उस लोक की बाधाएं
मैं जानता हूँ, इस उद्दंड ग्रहिल उत्कंठा की संभावनाएं
और इसी सीमा, बंधन, चेतन, लोक, उत्कंठा के बीच जब  
श्वासों के आरोह-अवरोह में आतत, खो जाता हूँ
अपने मन में आपका ही विस्तार पाता हूँ

मैं जानता हूँ, किसी चालक के सम्मुख विनत यह संसृति है   
मैं जानता हूँ, किसी निर्देश से नियोजित आपकी निभृति है
मैं जानता हूँ, मेरे शून्य में गुंजायमान आपकी ही आवृति है
मैं जानता हूँ, जो क्लेश है, इस दूरी की भावुक स्वीकृति है
मैं जानता हूँ,  जो शेष है, यही संचित स्मृति है
और संसृति की इसी स्वीकृत गति को स्वीकार कर भी
जाने क्यों उद्विग्न, उद्वेलित रह जाता हूँ
सोचा आज कुछ कह जाता हूँ


आज मेरे चाचाजी की २३वीं पुण्यतिथि है. उनकी स्मृति में लिखे इन्हीं शब्दों के साथ आज के लिए विदा. कल से कलम को फिर से गति मिलेगी.