कौन जानता है
किसकी दंतपंक्ति है,
किसका हाथ है
किसका 'तार' है
कौन वो रूपोश है
किसका ये विस्तार है
नहीं, संगीत नहीं
नहीं, नहीं, नहीं
इनमें संगीत
नहीं
नाद नहीं, नर्दन है
क्रंदन है, घोर क्रंदन है
अप्रत्यास्थ है, अखंडनीय है, अधर्षनीय है
कितना जिद्दी है
बजता ही रहता है
प्रारंभ से अंत तक
यह मोरचंग
क्यों, किसलिए
कौन जान पाया है ?
(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट,
२७ मई २०१४)
अद्धभूत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनयी पुरानी हलचल का प्रयास है कि इस सुंदर रचना को अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
ReplyDeleteजिससे रचना का संदेश सभी तक पहुंचे... इसी लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 02/06/2014 को नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है...हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
[चर्चाकार का नैतिक करतव्य है कि किसी की रचना लिंक करने से पूर्व वह उस रचना के रचनाकार को इस की सूचना अवश्य दे...]
सादर...
चर्चाकार कुलदीप ठाकुर
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कोई नहीं जान पाया।.....आखिर ये है कौन।
ReplyDeleteयही तो मुश्किल है जानना.. आखिर कौन जान पायेगा ? अद्भुत पोस्ट एकदम ह्रदय से उपजी हुई
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ....!!
ReplyDeleteशायद इसी बात को जानना मुमकिन नहीं हो पाया आज तक ...
ReplyDeleteये वो जो तुझमे और मुझमे और समस्त विराट में व्याप्त है | अति सुन्दर अभिव्यक्ति बस एक बात ये "मोरचंग" क्या है क्या 'मृदंग' का ही कोई रूप
ReplyDeleteबहुत कठिन है यह सब जानना ,बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुन्दर विविध वाद्ययंत्रों की इस अभिव्यक्ति का आनन्द अनुभूत करना ही अपने आप में एक उपलब्धि है क्यों क्या कैसे का विज्ञान तो रुक्षता ही उत्पन्न करेगा
ReplyDeleteइसलिए तो उस अबूझ के लिए इतना आकर्षण है जो कभी कम ही नहीं होता है ..
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