अबकी, जबकि मैं निकल पड़ा
हूँ तो
या जंगल में आग होगी
या मेरे हाथों में नाग होगा
पर इतना ज़रूर तय है
कि मेरी छह-दो की यह काया
दंश से बेदाग़ होगा
पूरे जंगल में मैंने घूम कर
देख लिया है
दूध और बिना दूध के थनों और
स्तनों को पी-पी कर
एक तरफ धामिन और नाग का
मिलाप हो रहा है
और दूसरी तरफ बस विलाप ही
विलाप हो रहा है
इसीलिए मैंने नागों से कह
दिया है
कि तुम्हारे विष की ज़रुरत
बस मेरे प्रयोगशाला तक है
जिससे मैं हर रोज ‘आर.एन.ए’ पचाता हूँ
और ‘एच.पी.एल.सी’ में चढ़ाता
हूँ
उसके आगे कहीं और तुम्हारा फन तनेगा
तो ये सारा जंगल जलेगा
लेकिन किसी भी हाल भी
वस्त्रावृत या वस्त्रहीन
देह पर
नंगा नाच नहीं चलेगा
(ओंकारनाथ मिश्र, समिट
स्ट्रीट,५ जून २०१४)
चैलेन्ज तगड़ा दे दिया है...सीधा सन्देश दिल से...
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शनिवार 07 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
पर इतना ज़रूर तय है
ReplyDeleteकि मेरी छह-दो की यह काया
दंश से बेदाग़ होगा
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बहुत उम्दा निहारजी....
कितना कुछ है .......
ReplyDeleteनंगा नाच हो न हो पर नंगपन तो तालियां बजा ही रहा है।
ReplyDeleteशब्दों का प्रभाव जंचता है | पर निहार भाई इस कविता का कुछ अर्थ समझ पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ |
ReplyDelete..बहुत खूब निहार भाई।
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