यह सत्य है कि हमने एक-एक
कलियाँ गुलाब की लेकर
नहीं बाँधा था एक दूसरे को
भुज-पाश में
नहीं गए मनाली, ऊटी या
उटकमंड
नहीं धोये हमने क्षीर-धार
से शिलाखंड
नहीं गए अमृतसर, अजमेर या
लोदी गार्डन
हुमायूं की कब्रगाह, पुराने
किले या शाहजहानाबाद के पार
हमने नहीं कहा, तुम हो नाव, मैं हूँ पतवार
पर यह सत्य है, जाने किस मारीच के भय से
एक काली हिरणी बनकर
तुमने ही पाया था, पथ इस पंजर-कफस में
सहज है यह पृक्ति
क्योंकि, इस धरातल पर सहज नहीं, एक ‘शस्य-कथा’
प्रयति की सीमाएं नहीं, स्वार्थ के उपर
सवाल, वाग्जाल और उन्नत भाल
लिए स्थापित हैं
वही प्रतिमान, वही
विक्षिप्त लिप्सा
वही अदय, वही भग्न-मना, वही
आखेटक
जिसके अधिक्रम
यानि स्याह-द्युतियों के
आवेशित आवेश
तुम्हें, अर्थात, काली हिरणी
को छूते है
इसीलिए, और सिर्फ
इसीलिए
कि सृष्टि की अद्भुत गाथाएं
वेदवती या नंदलाल की
सुखांत नहीं है
तो फिर क्यों इतने
महाद्वीपों, महासागरों के पार
इस घने विपिन में,
मधुवात, रात, प्रभात के बाद
पुनः राग-भैरवी में यह
अंतर्नाद
अर्थात, तोयकाम काली-हिरणी
की आर्द्र-ध्वनि
किसलय, कुसुम, मरंद के मध्य
अग्नि-स्फुलिंग
एक उत्पलाक्षी का परिक्लांत-मुखारविंद
एक प्रत्यक्ष वेणीसंहार
हर्ष और आह्लाद के बीच
सातत्य उसी अनुतर्ष का
जिसके लिए तुमने घाट-घाट के
पानी पिए
अपने भाव-उद्रेक से आहत
होकर
स्वर-ग्रंथियों को बाँधा
कि कोई कर्ण-कटु गीत महीन
हवाओं के साथ
दूर नहीं जाए
कि तुम्हारी इसी व्यासक्ति
पर सिद्ध मीमांसक
व्यक्त न करें वही, जो
तुम्हे ग्राह्य नहीं
कहो पिंज-हृदयी!
तुमने कभी सुनी है अपने
रग-रेशे की केन्द्रित झंकार?
तुमने कभी सोचा है?
‘शेली’ की नाव सागर में डूब
गयी,
लेकिन उसकी कवितायें अथाह
सागर सी क्यों हो गयी?
भान हो तुम्हे कि, अनुस्मृतियों
के जीवन
जीवन की अनुस्मृतियों के
बीच का यथार्थ
यही है, जीवन की
दारुण-कथाएँ यही है
सुख भी यही है, व्यथाएं भी
यही है
कि एक अरण्य होता है
काली हिरणी होती है
होते हैं बाघ, वायस,
श्रृगाल
हिरणी चाहती है एक
निर्गल-पथ
बाघ, वायस, श्रृगाल चाहते
हैं नमकीन गोश्त
हिरणी जब अरण्य-रोदन करती
है
तो बाघ, वायस, श्रृगाल उसे
मधुर-गीत समझते हैं
वह बहुत दूंद मचाती है
लेकिन―
बहुत वर्षों के बाद समय की
आंधियां आती है
अरण्य की समस्त चरता का
अंत-काल आता है
पेड़ सूख जाते हैं
अरण्य में अग्नि का संचार
होता है
उसका विस्तार होता है
फिर तुमने क्यों कहा
एक पथ के दो रास्ते होंगे अब?
(ओंकारनाथ मिश्र, पंचमढ़ी , २५
अगस्त २०१५)
भान हो तुम्हे कि, अनुस्मृतियों के जीवन
ReplyDeleteजीवन की अनुस्मृतियों के बीच का यथार्थ
यही है, जीवन की दारुण-कथाएँ यही है
सुख भी यही है, व्यथाएं भी यही है
कि एक अरण्य होता है
काली हिरणी होती है....सुन्दर .......
हिरणी जब अरण्य-रोदन करती है
ReplyDeleteतो बाघ, वायस, श्रृगाल उसे मधुर-गीत समझते हैं
वह बहुत दूंद मचाती है लेकिन―
बहुत वर्षों के बाद समय की आंधियां आती है
अरण्य की समस्त चरता का अंत-काल आता है
पेड़ सूख जाते हैं
अरण्य में अग्नि का संचार होता है
उसका विस्तार होता है
...यही है शायद प्रकृति का सत्य...बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...
गहन भावोंवाली अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteभावों के उथल-पुथल और अनेक वाद-विवाद के बीच एक बात तो तय है ... की सतत साथ चलना हो तो जीवन कट जाता है ... पथ दो होने को आयें तो प्रशन खडा हो जाता है ...
ReplyDeleteसुन्दर और प्रभावी रचना।
ReplyDeleteमेरे नए ब्लॉग पर आपके सुझावों और विचारों का स्वागत हैं, https://doosariaawaz.wordpress.com/
सुन्दर व प्रभावशाली पोस्ट. प्रकृति को देखना व उसमे जीना कोई आपसे सीखे.
ReplyDelete