प्रसंग एक- कुछ नया नहीं
यह गरीब!
पिसता था, पिसता है, पिसता
ही रहेगा
देह घिसता था, घिसता है,
घिसता ही रहेगा
किसी खेत में, किसी कारखाने
में, किसी वेश्याघर में
मरेगा, कटेगा, बिकेगा
छला है, जलेगा, भुनेगा
गिरेगा, गिरेगा, गिरेगा
जब-जब चुनाव आयेंगे
कोई गाल छूएगा
कोई भाल चूमेगा
कोई इन्हें सर पर रख
सारा शहर झूमेगा
फिर चुनाव बीतते ही
लात इनको, बात इनको
कई घोटाले, घात इनको
और यह दुखिया बेचारी
हाथ जोड़े तब खड़ी थी
हाथ जोड़े अब खड़ी है
पेट से तब भी मरी थी
पेट पर अब भी मरी है
भूख की जिद्दी ये नागिन
फन वो काढ़े तन खड़ी है, तन खड़ी
है
दूध पीती उसके घर से
जिसके हाथों दे दिया बीन
हमने
और कहा था
लो बजाओ! लो बजाओ!
लो भगाओ! लो भगाओ!
पर कभी न बीन बजता,
पर कभी ना दूध घटता
ज्यों की त्यों अब भी अड़ी
है
फन वो काढ़े तन खड़ी है, तन खड़ी
है
तन खड़ा है वो भी गिरगिट
झुक गया था जो हमारे पैर पर
जा रहा है पंचवर्षी सैर पर
पूछता है वही हमसे
कौन गिरगिट, कौन उल्लू
बोलो दीनू, बोलो लल्लू !
प्रसंग दो- यहाँ भी, वहाँ भी
दुनिया के दो बड़े
प्रजातंत्रों में रह कर देख लिया मैंने
यह प्रजातंत्र का दोष नहीं
यह अल्पता या प्रचुरता की
बात नहीं
कि जब-जब चुनाव आता है
यही धर्म का, नस्ल का विभाजनकारी
सिक्का चलता है
हर हाल में गरीब ही पिसता
है
प्रसंग तीन- तो दोष किस में
?
क्या वही हमशक्ल अपना
सभ्यता की कर उपेक्षा जो
बढ़ा है
अपने गुणसूत्रों में पशुता
बचाये
‘सर्वशोषण पाठ’ जींवन में पढ़ा
है
और लिया जान है जीवन दौड़
ऐसी
जिसमे कोई साथ उसके न दौड़े
गर कोई हो जाय फिर भी खड़ा
तो
करने पंगु सबसे पहले टांग
तोड़े
फेंक रोटी उसकी खाली थाल
में
कहता उससे लो दबा लो गाल
में
प्रसंग चार- हम मूर्ख
दशमुखी के अट्टाहस को फिर
ना सुनने को
प्रत्यंचा पर तीर कभी हम तान
ना पाए
छः दशकों से ठगे हुए, पहचान
ना पाए
बीच हमारे कौन भेड़िया जान
ना पाए
(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट,
१० मई २०१४ )
लोकतंत्र का कटु यथार्थ ........
ReplyDeleteBhai Ranjan ji bilkul yatharth ke dhratl pr sateek vyakhya kr di hai aapne . Bahut bahut badhai aapko .
ReplyDeleteकडवा सच है ... पर ये मेरे महान देश की लोकतंत्र का ही हिस्सा है ...
ReplyDeleteये ठगी का कारोबार रूके। ठग सज्ज्न के चरणों में झुके।
ReplyDeleteया फिर सबकुछ जान कर भी मोहरा बनते हम ? विकल्प की तलाश में.. सशक्त रचना ..
ReplyDeleteसमय बदलते-बदलते मिट जायेंगे हम.…… कब मिलेगा मुझे अपने देश मे पनाह.....
ReplyDeleteबेहद सामयिक रचना...खैर अब तो नतीजे आ चुके हैं...बड़े लोकतंत्र से महान लोकतंत्र का सफर शुरू करने का वख्त आ गया है...
ReplyDeleteअच्छा व्यंग्य किया है अपनी इस कविता में..सुंदर प्रस्तुति।।
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