फुर्सत नहीं थी
कहनी थी, मुसलसल बात, मगर फुर्सत नहीं थी
सफर चलता रहा, सरे-रात, मगर फुर्सत नहीं थी
मुहब्बत में, असीरी का, बयाँ हमसे ना पूछो
उलझे थे कई मसलात, मगर फुर्सत नहीं थी
यही एक खेल चलता था सुबह के पौ से शब तक
कभी शह था, कभी थी मात, मगर फुर्सत नहीं थी
दयार-ए -ग़ैर में तश्नालबी थी एक रवायत
चाहे हो बादलों का साथ, मगर फुर्सत नहीं थी
वो फिर हँसती रही , कहती रही , कहती रही
यही कि, सुन लो मेरी बात, मगर फुर्सत नहीं थी
दिखाया ‘ख़ाक’ को फिर से हयात-ऐ-ग़म ने जलवा
लगाया था किसी ने घात, मगर फुर्सत नहीं थी
-ओंकारनाथ मिश्र
(वृंदावन , २५ मार्च २०२०)
आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-२ हेतु नामित की गयी है। )
ReplyDelete'बुधवार' ०८ अप्रैल २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
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बढ़िया !
ReplyDeleteओहोहो
ReplyDeleteमजा आ गया भाई साब.
क्या गजब लेखनी है आपकी.
तिश्नालबी थी एक रवायत...स्वाद आ गया.
पहली बार पढ़ा आपको. बहुत शानदार लिखते हैं आप.
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत रहेगा- आइयेगा-
नई रचना- एक भी दुकां नहीं थोड़े से कर्जे के लिए
बहुत सुन्दर भाव और यथार्थ दर्शाती पंक्तियाँ गजब लेखनी है
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