अपनी लघुता की कुंठा से
अरे ओ दीपक! बढ़ा मत
निरर्थक व्यथा का भार
उसी मिटटी, हाथ से, तुम दोनों
निर्माण हुआ
तपकर जब बाहर निकले, आकारों
से पहचान हुआ
उसके भाग्य है शीतलता और
तेरी नियति में तपना
लघु हो पर हीन नहीं, तुम
क्या जानो अपनी रचना
वो तो ग्रीष्म भर प्रिय है, पर
उसका सामर्थ्य नहीं
लौ से लौ जगा तम चीर जाये,
जहाँ जाये वहीँ
विस्मृत कर तपन
अरे ओ दीपक! कभी सोचो
क्यों रचता ऐसा कुम्भकार
आकारों के वश में नहीं, जो
कहे, किसकी क्या क्षमता है
रचनेवाला ही जानता है, वो
किसे, किसलिए रचता है
किसे मिलेगा ताप सतत, और
किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म,
तय वही सभी का करता है
पर देखो! तिमिर घिर मनुज,
बस उसकी आस में रहता है
जो नहीं वृहत, है लघु, तम लड़ता, रहता जलता है
(निहार रंजन, सेंट्रल, २६ सितम्बर २०१३)
दो रूठी कविताओं में एक "लैलोनिहार ....." इस महीने के शुरुआत में लिखी थी और आज ये कविता आखिरकार एक आकार में पहुंची.
आपकी लिखी रचना की
ReplyDeleteदीया और घड़ा
अपनी लघुता की कुंठा से
अरे ओ दीपक! बढ़ा मत
निरर्थक व्यथा का भार
ये पंक्तियाँ लिंक सहित
शनिवार 28/09/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
को आलोकित करेगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
बहुत सार्थक और सुन्दर ......
ReplyDeleteकिसका कैसा रूप, क्या कर्म, तय वही सभी का करता है
ReplyDeleteपर देखो! तिमिर घिर मनुज, बस उसकी आस में रहता है
बे मिसाल अभिव्यक्ति
यह रचना अनूठी है ...
ReplyDeleteबधाई आपको निहार रंजन जी !
रचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है
ReplyDeleteकिसे मिलेगा ताप सतत, और किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म, तय वही सभी का करता है
पर देखो! तिमिर घिर मनुज, बस उसकी आस में रहता है
जो नहीं वृहत, है लघु, तम लड़ता, रहता जलता है
गहन और बहुत सुंदर सुस्पष्ट भाव ....
बधाई एवं शुभकामनायें ...निहार जी ....
नमनीय वही जो निज धर्म निभाये
ReplyDeleteऔर सर उंचा कर बस चलता जाए ...
अति सुन्दर रचना..
बहुत सार्थक और सुन्दर ......
ReplyDeleteक्षमा चाहता हूँ पर कहे बिना रहा नहीं जा रहा कि कहीं न कहीं तारतम्य बिगड़ रहा है कविता में। शीर्षक यदि दीया और घड़ा है तो घड़े के नाम वर्णन भी होना चाहिए। एक बार पुन: क्षमा चाहता हूँ। कविता के भाव गूढ़ व सार्थक हैं इसलिए सोचा इसका वर्णन भी सुगठित तरीके से होना चाहिए। कृपया देख लें और यदि मैं गलत हूँ तो इस बाबत भी बताने का कष्ट करें।
ReplyDeleteविकेश जी, कविता में तुलना से ज्यादा कुंठा-त्याग की ओर इशारा करने का प्रयास था मेरा. कविता में घड़ा शब्द अव्यक्त है. शीर्षक में घड़ा डालकर उसी अव्यक्त घड़े को प्रकट रूप में लाने की कोशिश थी मैंने. अगर आप उस दृष्टि से देखें जहाँ आपके सम्मुख घड़े के सामने कुंठित दीया दिखे और आप दीये से कुछ कहना चाहें तो शायद शीर्षक और कविता में कुछ साम्य दिखे.
Deleteआकारों के वश में नहीं, जो कहे, किसकी क्या क्षमता है
ReplyDeleteरचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है
किसे मिलेगा ताप सतत, और किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म, तय वही सभी का करता है
पर देखो! तिमिर घिर मनुज, बस उसकी आस में रहता है
जो नहीं वृहत, है लघु, तम लड़ता, रहता जलता है
बेहद सुन्दर और सटीक -निरंजन जी बधाई
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निहार भाई आपके लेखनी दिन बा दिन पैनी होती जा रही है ये ऐसी ही निखरती रहे हमारी शुभकामनायें । सुन्दर प्रतीतात्मक रचना |
ReplyDeleteरचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है... निहार रंजन जी !
ReplyDeleteयहाँ भी तो नियति ही हावी है .....एक साथ ढले ...पर नियति बनाने वाले ने पहली ही तै कर दी....बहोत ही सुन्दर ..बधाई ...!
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर रचना , भाव में जो उचाई है अद्भुत , बहुत बधाई आपको ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ....
ReplyDeleteअद्भुत रचना निहार भाई। बहुत दिनों बाद आ पाया ब्लॉग जगत में, लेकिन पढके सार्थक हो गया आना।
ReplyDeleteजिस गहन भाव को आपने दीये और घड़े के माध्यम से प्रस्तुत किया है उसके क्या कहने। इतना अच्छा अलंकार कम पढने को मिलता है. खासकर इन पंक्तियों ने तो कई बातें कह दी हैं-
रचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है
किसे मिलेगा ताप सतत, और किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म, तय वही सभी का करता है
इस बेहद ही सुन्दर रचना के लिए बहुत बधाई।
सादर,
मधुरेश
सार्थक भाव्पय रचना ... सच है की निर्माण करने वाला ही शरीर के साथ आत्मा का भी निर्माण करता है ... फिर जो कर्म है उसे ही करना जीवन है ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना ...
किसका कैसा रूप, कर्म, तय वही सभी का करता है
ReplyDeleteपर देखो! तिमिर घिर मनुज, बस उसकी आस में रहता है
बहुत सुन्दर भाव ....आत्मविश्वास बढाती रचना
बहुत सुंदर विषय ...
ReplyDeleteसच है रचनाकार ही तय करता है कर्म का भार
आकारों के वश में नहीं, जो कहे, किसकी क्या क्षमता है
ReplyDeleteरचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है
...बहुत सार्थक और गहन अभिव्यक्ति...
आकारों के वश में नहीं, जो कहे, किसकी क्या क्षमता है
ReplyDeleteरचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है
किसे मिलेगा ताप सतत, और किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म, तय वही सभी का करता है
bilkul sahi kaha hai bahut sundar !
हर प्रकाश के निमिस जलन तो है ही !
ReplyDeleteसिर्फ वाह कहूँगा ....
ReplyDeleteअति उत्तम...
ReplyDeleteभाव, भाषा, कविता!!!