Wednesday, September 18, 2013

आत्मरक्षा

गतिमान पथिक, सतत विकस्वर  
सुख-निरिच्छ, केन्द्रित लक्ष्य पर
किन्तु जगत के मोह बंधन से
पग-पग मिलते प्रलोभन से
मिथ्या के मोहक छद्म आवरण से
तन्द्राल सुमति के अलभ्य जागरण से
विवश है विकारों के सहज वरण से
मर्त्यलोकी पथों के सुलभ कंटकों पर
बचता हुआ, बिधता हुआ
चला जा रहा है, चला जा रहा है!   

त्वरण तेज होता हुआ जा रहा है
नहीं शेष क्षण जो विचिन्तित हो जीवन
करे मन मनन तो नयन हो विचक्षण
प्रलोभन से यंत्रण तो निश्चित क्षरण
हो अदना मनुज कोई इस धरा का
या अर्जित किया है जिसने तपोबल
श्रृंखलित मन भी हो जाता विश्रृंखल
लगा दौड़, कुपथ पर देता है चल
लोभ से लुभाते, लार गिराते
गिरा जा रहा है, गिरा जा रहा है!

कोई तुच्छ भेटों से ही प्रफुल्लित
कोई शरीर सुख को डोल जाता
कोई स्वर्ग लोलुप वृथा कर समय  
स्वप्नों में खोकर जीवन बिताता
जीवन पथ पर चलते पथिक को
जरूरी बहुत है ये जान जाना
जो इच्छित हो जीवन अवसाद के बिन
दंत-पिंजरे में जिह्वा का रखना ठिकाना
रहा है जो रक्षित इन्हीं कंटकों से
बढ़ा जा रहा है, बढ़ा जा रहा है ! 


(निहार रंजन, सेंट्रल, १८ सितम्बर २०१३)    

17 comments:

  1. सत्य के अनुसंधान में जुटा-भिड़ा एक कर्मयोगी शब्द-शब्द जीये जा रहा है, जीये जा रहा है.......

    ReplyDelete
  2. कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ..................
    ध्येय पर ,लक्ष्य पर ,बढ़े चलो चले चलो। अत्यंत प्रभावशाली उत्कृष्ट काव्य के लिए बधाई स्वीकारें .

    ReplyDelete
  3. नए-नए शब्दों से अद्धभूत रचना
    गढ़ा जा रहा है गढ़ा जा रहा है

    ReplyDelete
  4. जग में क्षण-क्षण, पग-पग बढ़ती लोलुपता, तुच्‍छ स्‍वार्थ से विलग हो आत्‍मरक्षा और तदोपरान्‍त राष्‍ट्र रक्षा के निमित्‍त समर्पित हो जाने का अभिसंकल्‍प लेती कल्‍याणकारी कविता।

    ReplyDelete
  5. चरैवेति..चरैवेति.. कंटक बिन साध भी होती नहीं पूरी.. अति सुन्दर..अति सुन्दर..हार्दिक बधाई..

    ReplyDelete
  6. इस गतिमान दुनिया में गतिशील मनुष्य का जीवन उत्थान पतन के बीच चलता रहता है.......
    बहुत खुबसूरत रचना !!

    ReplyDelete
  7. अत्यंत प्रभावशाली उत्कृष्ट काव्य ..........बहुत खुबसूरत रचना !!

    ReplyDelete
  8. रहा है जो रक्षित इन्हीं कंटकों से
    बढ़ा जा रहा है, बढ़ा जा रहा है
    .............. खुबसूरत रचना !!

    ReplyDelete
  9. "मर्त्यलोकी पथों के सुलभ कंटकों पर
    बचता हुआ, बिधता हुआ
    चला जा रहा है, चला जा रहा है!"
    ओह! कितनी स्पष्ट बात... कितना सटीक चित्रण! वाह!

    दंत-पिंजरे में जिह्वा:: इस रूपक ने विभोर कर दिया...

    प्राणमयी कविता!

    ReplyDelete
  10. आत्मवीक्षण का सुंदर संदेश देती रचना..

    ReplyDelete
  11. निहार भाई.... अद्भुत जीवन के लक्ष्य और उसमें आने वाली बाधाओं को दर्शाती इस गहन रचना ने मन मोह लिया । आपकी हिंदी भाषा पर पकड़ और शब्दों के चयन का मैं कायल हो चला हूँ ……. शुभकामनायें आपको |

    ReplyDelete
  12. कल 21/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
  13. अद्भुत शब्द संयोजन..... बहुत सुन्दर....

    ReplyDelete
  14. बहुत सार्थक और गहन अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
  15. तमाम व्यामोहों से विरत होगा जो ,बढेगा पथ पर वो

    ReplyDelete