गुड़गुड़ाते हुक्कों के बीच
उठता धुएं का धुंध
उसे चीरती चिता की चिताग्नि
चेहरों पर उभरे प्रश्वाचक
चिन्ह
कुछ पाषाण हृदयी जीवित अ-मानव
और ढेर सारे प्रश्न
जीवन के, जीवन-निर्माण के
समाज के, समाज-उत्थान के
संग-सारी के, तालिबान के.
अगर यही परिणति तो
नौ महीने का गर्भधारण क्यों
असह्य प्रसव वेदना क्यों
व्यर्थ स्तनपान क्यों
नक्तंदिन स्नेह स्नान क्यों
संतति की दो आँखों में
आशा का संसार क्यों
इस दानवी कृत्य के लिए
समय व्यर्थ करने की दरकार
क्यों
उदहारण तो पुरखों पितामहों
ने
दिखाए थे फांसी चढ़ाकर
मगर तुम्हे नहीं हो सका
ज्ञात
जीवन से ऊपर नहीं होती जात
उदाहरण तो तुम बने हो
इंसान से दानव में
परिवर्तित होकर
अपने हाथों से अपने ‘प्राणों’
को मृत कर
वैध और अवैध की परिभाषाएं
बदलती है सीमायें, समय
विषय वासना केंद्र नहीं
प्रेम का
काश! समझ पाते तुम निर्दय
इस झूठी मूंछ से बहुत बड़े
होते हैं अपने तनयी-तनय
काश! माता और पिता जैसे
शब्द
चीर दें तुम्हारे उस पाषाण
ह्रदय को
और तुम्हारी आत्मा अटकी रहे
उत्सादी उद्विग्नता में
माता और पिता जैसे शब्द
पुनः सुनने के लिए
(निहार रंजन, सेंट्रल, २२
सितम्बर २०१३)
ये तो सरासर सृष्टि-करता से तुच्छ होड़ है कि जन्म दिया है तो प्राण भी ले सकते हैं..ये पाषाण-ह्रदय अपनी मूंछों के लिए ही जीवित रहते हैं तो संसार का त्याग ही कर देते..न कि ऐसा जघन्य अपराध करते.
ReplyDeleteआपकी रचना रोंगटे खड़ी कर गई
ReplyDeleteसोच नहीं पाती लोग क्यूँ कैसे ऐसा पाप कर जाते हैं
अपने जमीर से निगाहें मिला पाते होंगे
गहन चिंतन
ReplyDeleteदुखद है।
ReplyDeleteएक सार्थक विषय पर एक सटीक रचना है ये। ……।इन्सान के जन्मजात हक है आज़ादी। ……परन्तु अपने झूठे अहं को बनाये रखने के लिए लोग किस तरह दूसरों की आज़ादी और जान तक को छीन लेते हैं शर्मनाक है ये…….इस विषय पर आपने इतने सुन्दर तरीके से लिखा शुभकामनायें हैं आपको |
ReplyDelete"जीवन से ऊपर नहीं होती जात"
ReplyDeleteकाश! समझ पाते ये सच वे निर्दयी...
बहुत खूब! एक सार्थक विषय पर एक सटीक रचना है ये।
ReplyDeleteपाषाण काल कि पाशविकता अभी भी कायम ……. बहुत सटीक
ReplyDelete
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन अहतियात भरी रचना... पढ़कर अच्छा लगा...
बहुत गहन और हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति ......एक छोटी सी बात कितनी बड़ी है जीवन में......इस तरह का अपराध करके उन्हें क्या मिलता होगा ....????
ReplyDeletemarmik ....abhiwayakti ....
ReplyDeleteमगर तुम्हे नहीं हो सका ज्ञात
ReplyDeleteजीवन से ऊपर नहीं होती जात
उदाहरण तो तुम बने हो
इंसान से दानव में परिवर्तित होकर
अपने हाथों से अपने ‘प्राणों’ को मृत कर
हृदय से माया ममता प्रेम की जगह उन्माद भर कर
और जब यह उन्माद उतरता है तो कोई ठौर नही बचता ।
बहुत गहन भाव समी हुए रचना ... गुडगुडाते .. शायद बेहतर होता .... संवेदनशील विषय सुन्दर काव्य सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद.
Deleteतल्ख़ किन्तु समीचीन
ReplyDeleteHi Nihar
ReplyDeletewhat a wonderful and hard hitting poem on female infanticide..hats off!
अजीब लगता है कि हमारा समाज आज भी ऑनर किलिंग के मकरजाल में फंसा हुआ है .. हरयाणा वाली घटना खेदजनक है .. लेकिन उससे ज्यादा खेद मुझे इस बात का होता है की ऐसी चीजें आराम से रोकी जा सकती हैं लेकिन वोट-बैंक पॉलिटिक्स की चक्कर में कोई सकत कदम नहीं उठाता। वरना सती भी एक ज़माने में हकीक़त थी .. कुछ धारणाओं का उन्मूलन शिक्षा के शब्द डालने से नहीं हो पाता, सिर्फ सख्त कानून से ही हो पाता है ..
ReplyDeleteबहरहाल, सटीक शब्दों में सुन्दर रचना/
सादर,
मधुरेश
गहन ...चिंतनीय ....
ReplyDeleteहमें परखना होगा खुद को