दिवस हो या हो निशा,
दो रूप हैं, पर है समय
दिवस-प्रीति निशा-भीति,
क्यों निशा से इतना भय?
हो नहीं पाओगे पुलकित
देखकर टिम-टिम वो तारे
बहती नदिया पर छिटकते
चन्द्रमा को पा किनारे
क्यों उजालों की ही वांछा
रुचती मन के निलय में
क्यों निशा में दंश इतना
चोट करती मन-अभय में
जो निशा अस्तित्व ना हो
एकरस हो जाए जीवन
उठती क्या आनंद लहरी
प्राप्त कर प्रातः समीरण
कर निशा से द्वेष तुम
यूँ ना करो अपमान उसका
भेंट हैं यह, भव-बंधन की
आओ करें सम्मान उसका
हाँ! दिवस की रोचि रुचिकर
पर दिवस में है तपन
वो तपन भी भीतिकर है
तपन-चाहना है किस मन?
ताप-भीरु हर मनुज है
चाहे ताप निखारे कुंदन
सर्वकालिक ही रहा है
मन अभिलाषित सुगम अयन
फिर दिवस श्रिति चाहता
क्यों
पूछता हूँ प्रश्न मन से
भव के इस भ्रमजाल में जब
भीति-मूलें हैं सघन से
क्या दिवस से द्युतित जग
में
लोप है दारित ह्रदय की
क्या दिवस में भुज-बल इतना
निर्गलित करे पथ सदय की
देखो! बली सुतनु मेघ को
है किया उजागर बार-बार
विवश दिवस अवक्रांत कैसा
प्रसृत मेघ जब करें प्रहार
उस तिमिर से ही निशा है
मेघ पर जो है बिहँसता
ये तिमिर है जिसको केवल
बस समय ही जीत सकता
तिमिर भी एक व्याध है
शत्रुता जिसकी मन-खग
से
अर्गलित कर द्वार मन के
वर्धित करे अपरक्ति जग से
दृष्टि का है खेल सारा
दिवस निशा दोनों ही निर्मल
मन के चक्षु तिमिरहीन तो
सब कुछ दिखता धवल-धवल
निर्दोष है सारी निशा
सब तिमिर की करनी है
मन जो दे प्रश्रय उसको
सकल भीति की जननी है
कह तिमिर से, जब बसाये
मन में वो अपना बसेरा
"तुम जो चाहो, रात लाओ
देखता हूँ मैं सवेरा!"
(निहार रंजन, सेंट्रल, ११ सितम्बर
२०१३)
लैलोनिहार- रात और दिन
वांछा = इच्छा
निलय = घर, कक्ष
प्रातः समीरण = सुबह की हवा
भव-बंधन = सांसारिक बंधन
रोचि = प्रभा
भीतिकर = डरावना
सुगम अयन = आसान मार्ग
श्रिति = सहारा
द्युतित = प्रकाशित
दारित ह्रदय = दुखी ह्रदय
निर्गलित = बाधाहीन
तिमिर = अँधेरा
व्याध = बहेलिया
अर्गलित = बंद
अपरक्ति = द्वेष
वांछा = इच्छा
निलय = घर, कक्ष
प्रातः समीरण = सुबह की हवा
भव-बंधन = सांसारिक बंधन
रोचि = प्रभा
भीतिकर = डरावना
सुगम अयन = आसान मार्ग
श्रिति = सहारा
द्युतित = प्रकाशित
दारित ह्रदय = दुखी ह्रदय
निर्गलित = बाधाहीन
तिमिर = अँधेरा
व्याध = बहेलिया
अर्गलित = बंद
अपरक्ति = द्वेष
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteक्या बतलाऊँ अपना परिचय ..... - हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल - अंकः004
थोडी सी सावधानी रखे और हैकिंग से बचे
क्यों निशा से इतना भय?
ReplyDeleteजो निशा अस्तित्व ना हो
एकरस हो जाए जीवन
तपन-चाहना है किस मन?
लाजबाब अभिव्यक्ति
आपने लिखा....हमने पढ़ा....
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 14/09/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
दृष्टि का है खेल सारा
ReplyDeleteदिवस निशा दोनों ही निर्मल
मन के चक्षु तिमिरहीन तो
सब कुछ दिखता धवल-धवल
निर्दोष है सारी निशा
सब तिमिर की करनी है
मन जो दे प्रश्रय उसको
सकल भीति की जननी है
वाह सर लाजवाव रचना। ……………… बहुत सुन्दर सब दृष्टि दोष है .....
तिमिर है जिसको केवल समय ही जीत सकता है। तुम जो चाहो रात लाओ देखता हूँ मैं सवेरा। सुन्दर। निश्चय ही निशा और दिवस दोनों ही सार्थक हैं। दृष्टि ही इनके प्रति विभेद उत्पन्न करती है।
ReplyDeleteदिवस निशा दोनों ही निर्मल
ReplyDeleteमन के चक्षु तिमिरहीन तो
सब कुछ दिखता धवल-धवल
***
कितनी सुन्दर बात कितनी सुन्दरता से कही गयी!
वाह!
atiuttam sangrahniya kavya ....!!
ReplyDeleteगज़ब की हिंदी ……बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों का चयन और गठन.
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी कविता .
ताप-भीरु हर मनुज है
ReplyDeleteचाहे ताप निखारे कुंदन
सर्वकालिक ही रहा है
सच कहा आपने
मन के चक्षु तिमिरहीन तो
सब कुछ दिखता धवल-धवल
बहुत सुन्दर
उस तिमिर से ही निशा है
ReplyDeleteमेघ पर जो है बिहँसता
ये तिमिर है जिसको केवल
बस समय ही जीत सकता ..
प्रकाश ओर तिमिर का खेल जीवन में अलग अलग तरह से प्रभाव डालता रहता है ... पर मनुष्य की जिजीविषा उसे सदा ही धवलता की ओर ले जाती है ... सुन्दर, काव्यात्मक भावपूर्ण रचना ...
शब्द और भावों का अनूठा संगम होता है आपकी हर रचनाओं में
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है, दिवस हो या निशा दोनों का अपना अपना महत्व है !
बहुत खुबसूरत कविता !!
ReplyDeleteसुंदर शब्दों का चयन ....
बहुत ही बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
लैलोनिहार चल तिमिर छाड़..
ReplyDeleteकितना सुन्दर शब्द है ये .. मैं इसको पढ़ने से कैसे चूक गया.. ?
इसको पढ़ने के बाद काजी नजरुल इस्लाम की याद आ गयी
...हर तारीफ़-प्रशंसा से परे बेहतरीन काव्य ....निहार भाई ऐसा पोस्ट पढ़ने के बाद आपसे बहुत उम्मीद हो जाती है...