Tuesday, November 20, 2012

अनबुझ प्यास



मैं प्यासा बैठा रहा
बरगद के नीचे 
तुम्हारे  इंतज़ार में

हवा आयी, और जुगनुओं का झुण्ड
इस विभावरी रात में सोचा था
तुम्हे आते देखूंगा, तुम्हारी हर डग को  
तुम्हारे पायल की हर रुनक झुनक सुनूंगा
किसी विस्मय की आशा नहीं थी
एक प्यास थी, प्यास होठों की नहीं
वो प्यास जो आत्मा में जगती है
आत्मा में बसती है, आत्मा में बुझती है

रात बढती गयी,
चाँदनी और शीतल
विभावरीश और तेजोमय  
निशाचर पहर का वक़्त आ चुका था
तुम्हारी आने की आस अब भी आस ही थी
डर भी ... उस पापी झिमला मल्लाह का .

सुबह का वक़्त होने को आया है
पर अब भी वही आस, अब भी वही प्यास
होठों की प्यास बुझ जाए शायद
पूरी चार बूँदें दिख रही हैं पत्ते पर
दो ओस की और दो नेह की
पर आत्मा ...........?

(निहार रंजन, सेंट्रल, १९-११-२०१२ )

10 comments:

  1. भावमय करते शब्‍दों का संगम ... उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति

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  2. बहुत गहन और सुंदर अभिव्यक्ति ......
    शुभकामनायें ॰

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  3. आपकी इन पक्तियों ने मन के संवेदनशील तारों को झंकृत कर दिया। मेरे नए पोस्ट पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद।

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  4. सबसे पहले हमारे ब्लॉग 'जज्बात....दिल से दिल तक' पर आपकी टिप्पणी का तहेदिल से शुक्रिया.........आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ...........पहली ही पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब...........आज ही आपको फॉलो कर रहा हूँ ताकि आगे भी साथ बना रहे|

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  5. इमरान भाई, ब्लॉग पर आने का और ब्लॉग से जुड़ने के लिए शुक्रिया. आपकी रचनाएँ पढ़ी. सब बेजोड़. आशा है साथ बना रहेगा.

    निहार

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  6. आत्मा तो अब भी प्यासी है, ये अंतस की प्यास ही तो है जो शब्दों में भावनाएं गढ़ के कविता बना डालती हैं, रंगों को आकार देके एक खूबसूरत तस्वीर बना डालती हैं ... बस इन्ही भावनाओं में सराबोर जीवन, सदा करता रहता है उस तृप्ति का इंतज़ार ..
    बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है निहार भाई!

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    1. शुक्रिया मधुरेश भाई...जीवन की प्यास कभी नहीं बुझ पाती शायद. जीवन सागर में हमेशा कुछ नया पाने की इच्छा प्यास को सदा जीवंत रखती है.

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  7. सुबह का वक़्त होने को आया है
    पर अब भी वही आस, अब भी वही प्यास
    होठों की प्यास बुझ जाए शायद
    पूरी चार बूँदें दिख रही हैं पत्ते पर
    दो ओस की और दो नेह की
    पर आत्मा ...........?

    अंतिम पंक्तियाँ कमाल ...

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  8. सुबह का वक़्त होने को आया है
    पर अब भी वही आस, अब भी वही प्यास
    होठों की प्यास बुझ जाए शायद
    पूरी चार बूँदें दिख रही हैं पत्ते पर
    दो ओस की और दो नेह की
    पर आत्मा ...........?
    बहुत बढ़िया...कमाल ...

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