क्यों है ऐसी रचना जिसमे
मैं हूँ स्वछंद
और तू सिसकियाँ मारती है
होकर कमरे में बंद
मैं घूमता हूँ रस्ते
पर खुलेआम नंगे बदन
और तू ढकती रहती है लाज के
मारे अपना तन
मैं परवाज़ करूँ, देखूं
धरती गगन
और तू दरीचों से माँगे एक,
बस एक किरण
क्या बदला, दुनिया में
हजारों साल में
एक रूप में जन्म दिया तो गए
काल के गाल में
बचपन तेरा था, बचपन मेरा
था, थे हम बच्चे एक
लेकिन जैसे ही उम्र बढ़ी तुझे
मिली नसीहतें अनेक
तू लड़की है, तू बेटी है ,
घर से मत जा, तू जल्दी आ
वो बेटे हैं, जाने दे उनको
, तू कर ले बर्तन-चौका
खेल तू गुड़ियों से, फिर पूज
हरि को, वो खोलेंगे द्वार
फिर आएगा एक दिन तुम्हारे
सपनों का राजकुमार
खिल उठेंगे सारे फूल
तुम्हारे जीवन के बाग़ के
जल्दी शादी हो जाए तेरी, तू
रहे बिन दाग के
वरना कब कोई हैवान, हर ले तुम्हारा शील
और तुम्ही बनोगी दोषी, कौन
सुनेगा दलील
अच्छे घर में करेंगे शादी,
जो हो तुम मेरे करेज (कलेजा)
अच्छा लड़का ढूँढेंगे,
बेचकर जमीन देंगे लाखों दहेज़
फिर तुम जाओगी, बलखाती,
मुस्कुराती अपने सपनों के महल में
वही दुनिया जिसमे तुम उड़ती
थी अपने कल्पनाओं के कल में
पर वही होगा अंत जीवन
तुम्हारा, जिस दिन होगा ब्याह
जितने देखे थे सपने उजालों
के, सब आखिर होंगे स्याह
फिर होगा शुरू वो खेल
द्रौपदी वाला, चीरने का और नोंचने का
और तुम बस सहना उसे, ना कुछ
बोलने का, ना सोचने का
आखिर वो जायेगी भी कहाँ इस
अन्धकार से दूर
जो है वह मूर्ख, विवश, घिरे
उन अपनों से जो हैं क्रूर
बस रह जाता है नित अपमान और
आहें सर्द
और हँस कर समा लेना होता है
जीवन का सारा दर्द
कौन कहता है कैद होती है बस
सलाखों और जंजीरों से
मौत होती है बस गोलियों,
तलवारों और तीरों से
ये कैद नहीं तो और क्या है,
जहाँ मुँह बंद चाल बंद
और नर्क से निकलने की हर
खिड़कियाँ दरवाजे बंद
हजारों बातें लिखी गई तुझ
पर, गद्य में और पद्य में
लेकिन फिर भी तुम फँसी हो
अब भी भँवर के मध्य में
कौन निकला है समाज के इस व्यूह
से, तिमिर से
किसको मिली है रौशनी हर रोज
चमकते मिहिर से
वही कोई बेहया, कुलटा,
पतिता, देह बेचती वेश्या
जो बाहर से रंगीन हो और
भीतर एकदम स्याह
सदियों की प्यासी, प्यार की, दुलार की
फूलों के बाग़ सी लगती एक
संसार की
पर हाय विधाता! विवशता लिए
कैसी है तेरी यह कृति
समाज़ के वो नियम, जिससे
जीते जी ही है मौत मिलती
हाँ तू ही जीवन देती है, तू
ही प्यार भी
और तू ना रहे, तो ना रहे ये
संसार भी
मानता हूँ तेरे कद को,
कितनी है सहनशील
उफ़ भी नहीं करती जबकि तेरे पीछे
है कितने चील
मेरे समाज़ इसे ना दो
प्यार, सहारा, दया या भिक्षा
बस दो इसे कलम और कागज़, जो
पाए यह शिक्षा
(निहार रंजन, सेंट्रल,
४-१०-२०१२ )
( स्वर्गीय राजकमल
चौधरी को समर्पित )
लगता मैं चुपचाप, कायर, किसी के पाँव दबा रहा हूँ
ReplyDeleteस्वादिष्ट रोटी और गोश्त, घर में आराम से चबा रहा हूँ ... यही लगना एक सुलगती चिंगारी है !
........
हर परिवेश को बखूबी उतारा है
सराहनीय प्रस्तुति आभार
ReplyDeleteशब्द-शब्द कुरेद रहा था भावनाओं को इस सीने में .. इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई निहार भाई। आपने वो सारे तार छुए हैं इस रचना में, जिससे हम सभी जुड़े हैं मगर व्यक्त नहीं कर पातें ..
ReplyDeleteकुछ यही भावनाएं हमारी भी हैं इधर ... :)
DeleteRajkamal chaudhry mere bhi pasandeeda hain, aap unmen utar aaye. sundar!
ReplyDeleteजी, वो मेरे भी बहुत पसंदीदा कवि और लेखक है. कुछ महीने गाँव में पिताजी से उनकी मैथिली में लिखी दुर्लभ रचनाये मिली. पढ़कर बहुत अच्छा लगा. मैथिली समाज के कई "रोगों" को उन्होंने बखूबी छुआ निडर होकर. हिंदी के लेखन भी लाजवाब है उनका. ये कविता उसी से प्रेरित है. उनकी भाषा तो मुझको नहीं है और ना ही तेवर. बस एक छोटा प्रयास है. धन्यवाद.
Delete~निहार
बात ज़िंदगी के अनुभव से श्रु हुयी .... और नारी के हर रूप की समस्याओं को बखूबी लिखा .... अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteसभी पंक्तियाँ अर्थपूर्ण ......
ReplyDeleteसभी पंक्तियाँ अर्थपूर्ण ......
ReplyDeleteमानता हूँ तेरे कद को, कितनी है सहनशील
ReplyDeleteउफ़ भी नहीं करती जबकि तेरे पीछे है कितने चील
....बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...