नवा-ए-दिल
एक कल बीत चुका, एक कल आने
को है
सुनो मेरे अहबाब, आज कुछ
बताने को है
किस-किस से बचता रहूँ
सफ़र-ए-हयात में
हर किसी को आता दामन में
दाग लगाने को है
आबरू के खातिर ही गई मिटटी
में सीता
नहीं तो क्या मज़ा धरती में
समाने को है
ये तुम भी जानते हो, जुल्मी
है बड़ी ये दुनिया
बहुत लोग यहाँ नवा-ए-दिल को
दबाने को हैं
डूबकर ही है मरना, तो आऊँगा
तेरे दर पर
दिल चाहता तेरी आँखों में
डूब जाने को है
बाँकपन भी , हया भी, तल्खी
भी, तेवर भी
कौन कहता है तुम्हे आता बस
शर्माने को है
चश्म-पोशी नहीं की मैंने,
बस दिल की सुनी
चश्म-ए-पुर-आब में क्या और
दिखाने को है
बाज़ार से ले आऊँ, जो हो
शिकस्ता आईना
है यहाँ कुछ जो शिकस्ता-दिल
बचाने को है?
हस्त-ओ-बूद के हवादिस भूलकर
बढ़ो आगे
ज़िन्दगी है तो कई सितम आज़माने को है
गिर गए गर आप, खुद ही उठ
संभलना है
वरना ये तो कहिये, क्या
फर्क जमाने को है
बाद-ए-सबा, बाद-ए-समूम,
बाद-ए-तुंद सब मिले
चले अब कोई हवा, क्या फर्क
दिल-ए-बेगाने को है
सूख चुका है कब का, खौल कर
रगों में खून
जमे अश्क आँखों में, नहीं
कुछ और बहाने को है
लगी आग तो मिला नहीं कोई जो
बुझाये उसे
हाँ मिले सौ जिन्हें आता आग
भड़काने को है
कई बस्तियाँ जलायीं, कई
इंसान भी जलाये
ओ सिरफिरों बताओ, क्या और
जलाने को है
आये नहीं फिर से लौटकर जो
गए बलम छोड़ गाँव
क्या ज़िंदगी वो, जिसमे ना
कुछ रूठने मनाने को है
दूर तक उठते हुए
धुएँ में दिखता नहीं मेरा गाँव
हद ये कि सिमरिया घाट पर ना गंगा नहाने को है
हद ये कि सिमरिया घाट पर ना गंगा नहाने को है
चाहता हूँ भूल जाऊँ सदा
माज़ी के सारे दिन
करू क्या उस पैकाँ का जो
दर्द जगाने को है
हुआ कब से नाशाद मेरा मन,
बरबाद मेरा दिल है
दूर रहो अगर तमन्ना मेरे
दिल में घर बसाने को है
उन लोगों से ग़म है, जो
सामने मीठा, पीछे और
अच्छा है तोड़ दो वो रिश्ते
जो बस निभाने को है
दौलत भी गई, ताकत भी गई,
रानाई और बीनाई भी
बिस्तर-ए-मर्ग पर लेटा हूँ,
कोई कंधा बढ़ाने को है ?
याद जब-जब आती है अपने गाँव में बचपन की
तसव्वुर में लगता
कोई शोला भड़काने को है
चाहत इसकी नहीं मुझको,
दराज़ उम्र मिले
चाहत हर लम्हों में ज़िंदगी
बिताने की है
(निहार रंजन , सेंट्रल,
२४-९-२०१२)
अहबाब- दोस्त
सफ़र-ए- हयात = जीवन का सफ़र
तल्खी = कड़वाहट
चश्म-पोशी = निगाहे फेर लेना (यानि जान बूझ कर अनजानी करना )
चश्म-ए-पुर-आब = आँसूं भरे नयन
शिकस्ता दिल = टूटा हुआ दिल
हस्त-ओ-बूद = भूत और वर्तमान
हवादिस = हादसा
बाद-ए-सबा = प्रात:कालीन हवा
बाद-ए-समूम = लू के समय वाली हवा
बाद-ए-तुन्द = आँधियों वाली हवा
माज़ी = भूत, गुज़रा वक़्त
पैकाँ = तीर की नोंक
सिमरिया घाट = मेरे गाँव से गंगा नदी का सबसे करीब घाट
नाशाद = अप्रसन्न
रानाई = सुन्दरता
बीनाई = आँखों की रौशनी
बिस्तर-ए-मर्ग = मौत की सेज
तसव्वुर = खयाल
दराज़ = लंबी
ReplyDeleteआबरू के खातिर ही गई मिटटी में सीता
नहीं तो क्या मज़ा धरती में समाने को है ... ताली बजानेवाले समझते कहाँ हैं !
गिर गए गर आप, खुद ही उठ संभलना है
ReplyDeleteवरना ये तो कहिये, क्या फर्क जमाने को है एकदम सही बात कही है आपने .बहुत सार्थक प्रस्तुति .आभार
बहुत किफायती ढंग से आपने लफ़्ज़ों को बरता हैं , कुछ शेर जैसे मसलन
ReplyDelete"किस-किस से बचता रहूँ सफ़र-ए-हयात में
हर किसी को आता दामन में दाग लगाने को है" ने गोया कलम तोड़ के रख दी हैं ..
मेरे ज़हन से बरबस निकल पड़ा कि
नाला-ए-दिल की सदा अब कहाँ सुनाई देती हैं
इस ज़माने में इंसानियत कहाँ दिखाई देती हैं
शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी.बेह्तरीन अभिव्यक्ति!शुभकामनायें.
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.