जब कभी डूब जाता हूँ माज़ी
में, तसव्वुर में
याद करता हूँ वो क़त्ल-ओ-खूँ
भागलपुर में
सैकड़ों लाशें बस एक ही करती
थी बयाँ
मजहबों की आड़ में फिर क़त्ल
हो गया इंसान
खून से पाटी गयी थी गंगा की
जमीन
खुद गंगा को भी अब तक होता
ना यकीन
जलती चिताओं से बस एक सदा आती थी
सिरफिरों फिर ना करो क़त्ल
कोई, कह जाती थी
ये जो हैं आग लगाने वाले वो
चले जायेंगे
घर बना कर भी हम ताउम्र जले
जायेंगे
ये ज़मीं अपनी है हमें साथ
ही रहना होगा
बला आएगी हमपर तो साथ ही
सहना होगा
देखो माज़ी की हक़ीक़त, अमन
कहाँ मिला है
हाँ उभरे है हिमालय नफरत के,
जब तेग चला है
कोई सीखता नहीं गुज़रे हुए
हादसों की हक़ीक़त से
खून से कभी हमें मिलता नहीं
निजात मुसीबत से
रंग-ओ–मज़हब हो अलग पर खून
तो ठहरा खून
मज़हब की जीत नहीं होती जब
सर चढ़ता जूनून
जब कभी फिर से ये जूनून
देखेगी दुनिया
खोएगा असलम अब्बा, खोएगी
बापू मुनिया
ना मिला है कभी सुकून बढ़ा
के नफरत को
फिर भी क्यों दूर है इंसान
करने उल्फत को
काश उस दिन को होश में सकूँ
निहार
जब दहर के हर बाग़ में आई
हो बहार
(निहार रंजन, सेंट्रल, २-१०-२०१२ )
वो भयानक मंज़र-जो आँखों से गुजरा हो,उसकी दहशत,उसकी तकलीफ कभी नहीं जाती
ReplyDelete.... बहार आएगी,क्रम रुकता नहीं न
insan ko insan ke khilaf khada karne ka sabse bada kaam rajnitigyon ka hai jo samprdayikta, aarakshan, aur n jane kin kin muddon par apni rotiyan sekte hain aur janta ko bhidwate hain.
ReplyDelete